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[मूलाचार द्वितीयं म्रक्षितदोषमाह
ससिणिण य देयं हत्थेण य भायणेण दव्वीए।
एसो मक्खिददोसो परिहरदव्वो सदा मुणिणा ॥४६४॥
सस्निग्धेन हस्तेन भाजनेन दा कटच्छुकेन च यद्देयं भक्तादिकं यदि गृह्यते तदा म्रक्षितदोषो भवति । तस्मादेष म्रक्षितदोषः परिहर्तव्यो मुनिना सम्मूनादिसूक्ष्मदोषदर्शनादिति ॥४६४॥
तृतीयं निक्षिप्तदोषमाह
सच्चित्त पुढवित्राऊ तेऊहरिदं च वीयतसजीवा।
जं तेसिमुवरि ठविदं णिक्खित्त होदि छन्भेयं ॥४६५॥
सचित्तपृथिव्यां सचित्ताप्सु सचित्ततेजसि हरितकायेषु वीजकायेषु त्रसजीवेषु तेषूपरि यत्स्थापितमाहारादिकं तन्निक्षिप्तं भवति षड्भेदं । अथवा सह चित्तेनाप्रासुकेन वर्तते इति सचित्तं । सचित्तं च पृथिवीकायाश्चाप्कायाश्च तेजःकायाश्च हरितकायाश्च वीजकायाश्च त्रसजीवाश्च तेषामुपरि यन्निक्षिप्तं सचित्त तत् षड्भेदं भवति ज्ञातव्यं ॥४६५॥
द्वितीय म्रक्षित दोष को कहते हैं
गाथार्थ चिकनाई युक्त हाथ से या वर्तन से या कलछी-चम्मच से दिया गया भोजन प्रक्षित दोष है । मुनि को हमेशा इसका परिहार करना चाहिए ॥४६४।।
आचारवृत्ति-घी, तेल आदि के चिकने हाथ से या चिकने हुए वर्तन से या कलछी चम्मच से दिया गया जो भोजन आदिक है उसे यदि मुनि ग्रहण करते हैं तो उनके म्रक्षित दोष होता है । सो यह दोष मुनि को छोड़ देना चाहिए क्योंकि इसमें समूर्च्छन आदि सूक्ष्म जीवों की विराधना का दोष देखा जाता है अर्थात् छोटे-मोटे मच्छर आदि जन्तु चिकने हाथ आदि में चिपककर मर सकते हैं अतः यह दोष है।
निक्षिप्त दोष को कहते हैं
गाथार्थ- सचित्त पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति तथा बीज और त्रस जीव-उनके ऊपर जो आहार रखा हुआ है वह छह भेद रूप निक्षिप्त होता है ॥४६॥
प्राचारवृत्ति-सचित्त पृथ्वी, सचित्त जल, सचित्त अग्नि, हरित काय वनस्पति, बीज काय और त्रस जीव इन पर रखा हुआ जो आहार आदि है वह छह भेद रूप निक्षिप्त कहलाता है। अथवा चित्त कर सहित अप्रासुक वस्तु को सचित्त कहते हैं। ऐसे पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, हरितकाय, बीजाय और त्रसकाय जीव होते हैं । उन पर रखी हुई वस्तु सचित्त हो जाती है। इन जीवकायों की अपेक्षा से वह छह भेद रूप हो जाती हैं ऐसे आहार को लेना निक्षिप्त दोष है।
भावार्थ-अंकुर शक्ति के योग्य गेहूँ आदि धान्य को बीज कहते हैं। ये बीज जीवो की उत्पत्ति के लिए योग्य हैं, योनिभूत हैं इसलिए सचित्त हैं, यद्यपि वर्तमान में इनमें जीव
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