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________________ पिण्डशुशि-अधिकारः] [३६१ पानादिकं वा यद्यादतपरिणतनामाशनदोषः । तथा लिप्तोऽप्रासुकवर्णादिसंसक्तस्तेन भाजनादिना दीयमानमाहारादिक यदि गृह्णाति तदा तस्य लिप्ततामाशनदोषः । तथा छोडिदं परित्यजनं भुजानस्यास्थिरपाणिपात्रेणाहारस्य परिशतनं गलनं परित्यजन यत्क्रियते तत्परित्यजननामाशनदोषः । एतेऽशनदोषा दर्शव भवंति ज्ञातव्या इति ॥४६२॥ शंकितदोषं विवृण्वन्नाह असणं च पाणयं वा खादीयमध सादियं च अज्झप्पे। कप्पियमकप्पियत्तिय संदिद्ध संकियं जाणे ॥४६३॥ अशनं भक्तादिक, पानक दधिक्षीरादिकं खाद्यं लडुकाशोकवादिक, अय स्वाद्यं एलाकस्तूरीलवंगकक्कोलादिकं । वाशब्दरत्र स्वगतभेदा ग्राह्याः । अध्यात्मे आगमे चेतसि वा कल्पितं योग्यमकल्पितमयोग्यमिति सन्दिग्धं संशयस्थं शंकितं जानीहि, आगमे किमेतन्मम कल्प्यमुत नेति यद्येवं संदिग्धमाहारं भुक्ते तदा शंकितनामाशतदोषं जानीहि । अथवाध्यात्मे चेतसि किमधःकर्मसहितमत नेति सन्दिग्धमाहारं यदि गलीयाच्छंकित जानीहि ॥४६३॥ है । जो परिणत नहीं हुआ है, जिसका रूप रस आदि नहीं बदला है ऐसे आहार या पान आदि जो कि अग्नि आदि के द्वारा अपक्व हैं उनको जो मुनि ग्रहण करते हैं उनके अपरिणत नाम का दोष होता है। अप्रास्क वर्ण आदि से संसक्त वस्तु लिप्त है। उस गेरु आदि से लिप्त हुए वर्तन आदि से दिया गया आहार आदि मुनि लेते हैं तो उनके लिप्त नाम का अशन दोष होता है। तथा छोटित--गिराने को परित्यजन कहते हैं। आहार करते हुए साधु के यदि अस्थिर-छिद्र सहित पाणि पात्र से आहार या पीने की चीजें गिरती रहती हैं तो मुनि के परित्यजन नाम का अशन दोष होता है। ये दश अशन दोष होते हैं। इनका विस्तार से वर्णन आगे गाथाओं द्वारा करते हैं। शंकित दोष का वर्णन करते हैं-- गाथार्थ-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार भेद रूप आहार हैं । आगम में या मन में ऐसा संदेह करना कि यह योग्य है या अयोग्य ? सो शंकित दोष है ॥४६३॥ प्राचारवत्ति-भात आदि भोजन अशन कहलाते हैं। दही, दूध आदि पदार्थ पानक हैं। लड्डू आदि वस्तुएँ खाद्य हैं । इलायची, कस्तूरी, लवंग, कक्कोल आदि वस्तुएँ स्वाद्य हैं। 'वा' शब्द से इनमें स्वगत भेद ग्रहण करना चाहिए। ____ अध्यात्म में अर्थात् आगम में इन्हें मेरे योग्य कहा है या अयोग्य ? इस प्रकार से संदेह करते हुए उस संदिग्ध आहार को ग्रहण करना शकित दोष है । अथवा अध्यात्म अर्थात् चित्त में ऐसा विचार करना कि यह भोजन अधःकर्म से सहित है या नहीं ऐसा संदेह रखते हुए उसी आहार को ग्रहण कर लेना सो शंकित दोष है। १क हारं भक्ते तदा शकितं नामाशनदोष जानीहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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