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________________ ३६०] [मूलाचारे जुगुप्सादयो दर्शनदूषणादयः सम्भवन्ति येभ्यस्तेऽपि परित्याज्या इति ।।४६१।। अशनदोषान् प्रतिपादयन्नाह संकिदमक्खिदणिक्खिदपिहिदं संववहरणदायगुम्मिस्से । अपरिणदलित्तछोडिद एषणदोसाई दस एदे ॥४६२॥ शंकयोत्पन्नः शंकित:, किमयमाहारोऽध:कर्मणा निष्पन्न उत नेति शंकां कृत्वा भुक्ते यस्तस्य शंकितनामाशनदोषः । तथा म्रक्षितस्तैलाद्यभ्यक्तस्तेन भाजनादिना दीयमानमाहारं यदि गृह्णाति म्रक्षितदोषो भवति । तथा निक्षिप्तः स्थापितः, सचित्तादिषु परिनिक्षिप्तमाहारं यदि गृह्णाति साधुस्तदा तस्य निक्षिप्तदोषः । तथा पिहितश्छादितः अप्रासुकेन प्रासुकेन च महता यदवष्टब्धमाहारादिकं तदावरणमुत्क्षिप्य दीयमानं यदि गृह्णाति तदा तस्य पिहितनामाशनदोषः । तथा संव्यवहरणं दानार्थ संव्यवहारं कृत्वा यदि ददाति तहानं यदि साधुर्गहाति तदा तस्य संव्यवहरणनामाशनदोषः । तथा दायक: परिवेषकः, तेनाशुद्धेन दीयमानमाहारं यदि गलाति साधुस्तदा तस्य दायकनामाशनदोषः । तथोन्मिश्रोप्रासुकेन द्रव्येण पृथिव्यादिसच्चितेन मिश्र उन्मिथ इत्युच्यते तं यद्यावते उन्मिश्रनामाशनदोषः। यथाऽपरिणतोऽविध्वस्तोऽग्न्यादिकेनापक्वस्तमाहारं में अधःकर्म के अंश का सद्भाव है अतएव त्याज्य हैं। तथा सम्यग्दर्शन आदि में दूषण उत्पन्न करनेवाले हैं। अन्य भो जुगुप्सा आदि दोष इन्हीं के निमित्त से संभव हैं उनका भी त्याग कर देना चाहिए। अब अशन दोषों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-शंकित, प्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और छोटित ये दश अशन दोष हैं ।।४६२॥ प्राचारवृत्ति-शंका से उत्पन्न हुआ आहार शंकित है। 'क्या यह आहार अधःकर्म से बना हुआ है ?' ऐसी शंका करके जो आहार ग्रहण करते हैं उनके शंकित नाम का अशन दोष है। तेल आदि से चिकने ऐसे बर्तन आदि के द्वारा दिया गया आहार यदि ग्रहण करते हैं तो उनके म्रक्षित दोष होता है। स्थापित को निक्षिप्त कहते हैं । सचित्त आदि पर रखा हुआ आहार यदि साधु ग्रहण करते हैं तो उन्हें निक्षिप्त दोष लगता है। ढके हुए को पिहित कहते हैं। अप्रासुक अथवा प्रासुक ऐसी किसी बड़े वजनदार ढक्कन आदि से ढके हुए आहार आदि को, उसपर का आवरण खोलकर दिया जाये और जिसे मुनि ग्रहण कर लेते हैं तो उनके पिहित नाम का अशन दोष होता है । तथा दान के लिए यदि संव्यवहार करके वस्त्र या पात्रादि को जल्दी से खींच करके जो दान दिया जाता है और यदि साधु उसे लेते हैं तो उनके संव्यवहरण नाम का अशन दोष होता है। परोसने वाले को दायक कहते हैं । अशुद्ध दायक के द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि लेते हैं तो उनके दायक नाम का दोष होता है। अप्रासुक द्रव्य से अर्थात् पृथ्वी आदि सचित्त बस्तु से मिश्र हुआ आहार उन्मिश्र है। उसे जो मुनि ग्रहण करते हैं उन्हें उन्मिश्र दोष लगता १ क आहारण । २ क दोसा दु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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