SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पिण्डशुद्धि-अधिकार: ] चूर्णदोषमाह णेत्तरसंजणचुण्णं भूसणचुण्णं च गत्तसोभयरं । चुण्णं तेणुप्पादो चुण्णयदोसो हवदि एसो ॥४६०॥ नेत्रयोरञ्जनं चूर्णं चक्षुषोनिर्मलीकरण निमित्तमञ्जनं द्रव्यरजः । तथा भूषणनिमित्तं चूर्णं येन चूर्णेन तिलकपत्र 'स्थत्यादयः क्रियन्ते तद्भूषणद्रव्यरजः । गात्रस्य शरीरस्य शोभाकरं च चूर्ण येन चूर्णेन शरीरस्य शोभाकरं दीप्त्यादयो भवन्ति तच्छरीरशोभानिमित्तं चूर्णमिति । तेन चूर्णेन योयमुत्पादो भोजनस्य क्रियते स चूर्णोत्पादनामदोषो भवत्येष जीविकादिक्रियया जीवनादिति ॥ ४६० ॥ मूलकर्मदोषं प्रतिपादयन्नाह - अवसाणं वसियरणं संजोजयणं च विप्पजुत्ताणं । भणिदं तु मूलकम्मं एबे उप्पादणा दोसा ॥४६१॥ [ ३५६ अवशानां वशीकरणं यद्विप्रयुक्तानां च संयोजनं यत्क्रियते तद्भणितं मूलकर्म । अनेन मूलकर्मणोत्पादो यो भक्तादिकस्य स मूलक्रर्मदोषः सुष्ठु लज्जाद्याभोगस्य करणादिति । एते उत्पादनदोषास्तथोद्गमदोषाश्च सर्व एते परित्याज्या अधः कर्माशदर्शनात् । एतेष्वधः कर्माशस्य सद्भावोऽस्ति यतः । तथान्ये च दोषाः चूर्ण दोष को कहते हैं गाथार्थ —–नेत्रों के लिए अंजनचूर्ण और शरीर को भूषित करनेवाले भूषणचूर्ण ये चूर्ण हैं । इन चूर्णों से आहार उत्पन्न कराना सो यह चूर्ण दोष होता है ॥४६०॥ आचारवृत्ति - चक्षु को निर्मल करने के लिए जो अंजन या सुरमा आदि होता है वह अंजनचूर्ण है, जिस चूर्ण से तिलक या पत्रवल्ली आदि की जाती है वह भूषणचूर्ण है, शरीर शोभित करनेवाला चूर्ण अर्थात् जिस चूर्ण से शरीर में दीप्ति आदि होती है वह शरीर शोभा निमित्त चूर्ण है। इन चूर्णों के द्वारा जो भोजन बनवाते हैं वह चूर्ण नामक उत्पादन दोष है । इससे जीविका आदि करने से यह दोष माना जाता है । मूलकर्म दोष को कहते हैं गाथार्थ — अवशों का वशीकरण करना और वियुक्त हुए जनों का संयोग कराना यह मूलकर्म कहा गया है । इस प्रकार ये सोलह उत्पादन दोष हैं ॥ ४६१॥ Jain Education International आचारवृत्ति - जो वश में नहीं है उनका वशीकरण करना और जिनका आपस में वियोग हो रहा हैं उनका संयोग करा देना यह मूलकर्म दोष है । इस मूलकर्म के द्वारा आहार उत्पन्न कराकर जो मुनि लेते हैं उनके मूलकर्म नाम का दोष होता है । यह स्पष्टतया लज्जा आदि का कारण है । ये सोलह उत्पादन दोष कहे गये हैं तथा सोलह ही उद्गम दोष भी कहे गये हैं । ये सभी दोष त्याग करने योग्य हैं, क्योंकि इनमें अधः कर्म का अंश देखा जाता है अर्थात् इन दोषों १ क पत्रावल्यादयः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy