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________________ ३५८ ] दर्शनादिति ॥ ४५७॥ मंत्रोत्पादनदोषमाह - सिद्ध पढिदे मंते तस्य य श्रासापदाणकरणेण । तस्य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु ॥४५८ ॥ सिद्ध पठिते मंत्रे पठितमात्रेण यो मंत्रः सिद्धिमुपयाति स पठितसिद्धो मंत्रस्तस्य मंत्रस्याशाप्रदानकरणेन तवेमं मंत्रं दास्यामीत्याशाकरणयुक्तया तस्य माहात्म्येन च यो जीवत्याहारादिकं च गृह्णाति तस्य मंत्रीत्पादनदोषः । लोकप्रतारणजिह्वागृद्ध्यादिदोषदर्शनादिति ।। ४५६ | अथवा विद्योत्पादनदोषो मंत्रोत्पादनदोषश्चैवं ग्राह्यः इत्याशंक्याह श्राहारदायगाणं विज्जामंतहि देवदाणं तु । आहूय साधिदव्वा विज्जामंतो हवे दोसो ||४५६॥ आहारदात्री भोजनदानशीला देवता व्यंतरादिदेवान् विद्यया मंत्रेण चाहूयानीय साधितव्यास्तासां साधनं क्रियते यद्दानार्थं स विद्यादोपो मंत्रदोषश्च भवति । अथवाऽऽहा रदायकानां निमित्त विद्यया मंत्रेण वाहूय देवतानां साधितव्यं साधनं क्रियते तत् स विद्यामंत्रदोषः । अस्य च पूर्वयोविद्यामंत्रदोषयोर्मध्ये निपातः इति कृत्वा नायं पृथग्दोषः पठितस्तयोरन्तर्भावादिति ॥ ४५६ ॥ आकांक्षा देखी जाती है । [मूलाचारे मन्त्र नामक उत्पादन दोष कहते हैं गाथार्थ - जो पढ़ते ही सिद्ध हो वह मन्त्र है । उस मन्त्र के लिए आशा देने से और उसके माहात्म्य से आहार उत्पन्न कराना सो मंत्रदोष है ||४५८ || Jain Education International श्राचारवृत्ति - जो मंत्र पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाता है वह पठितसिद्ध मन्त्र है । उस मन्त्र की आशा प्रदान करना अर्थात् 'तुम्हें मैं यह मन्त्र दूंगा' ऐसी आशा प्रदान करने की युक्ति से और उस मन्त्र के माहात्म्य से जो जीते हैं, आहार उत्पन्न कराकर लेते हैं उनके मन्त्र नाम का उत्पादन दोष होता है; क्योंकि इसमें लोकप्रतारणा, जिल्ह्वा की गृद्धता आदि दोष देखे जाते हैं । अथवा विद्या- उत्पादन दोष और मन्त्र - उत्पादन दोष का ऐसा अर्थ करना गाथार्थ - आहार दायक देवताओं को विद्या मन्त्र से बुलाकर सिद्ध करना विद्यामन्त्र दोष होता है ||४५६॥ श्राचारवृत्ति- आहार देने वाली देवियाँ हुआ करती हैं, ऐसे आहार-दायक व्यंतर देवों को विद्या या मन्त्र के द्वारा बुलाकर उनको आहार के लिए सिद्ध करना, सो यह विद्यादोष और मंत्रदोष है । अथवा आहार दाताओं के लिए विद्या या मंत्र से देवताओं को बुलाकर उनको सिद्ध करना सो यह विद्यामंत्र दोष है । इस दोष का पूर्व के विद्यादोष और मन्त्रदोष में ही अन्तर्भाव हो जाता है अतः यह पृथक् दोष नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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