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[मूलाचारे त्पादनदोपः। तथा लोभं कांक्षा प्रदर्य भिक्षां यद्यात्मन उत्पादयति तदा लोभोत्पादनदोषो भावदोषादिदर्शनादिति ॥४५३॥
पुनरपि तान् दृष्टान्तेन पोषयन्नाह
कोधो य हथिकप्पे माणो 'वेणायडम्मि जयरम्मि।
माया वाणारसिए लोहो पुण रासियाणम्मि ॥४५४॥
हरितकल्पपत्तने कश्चित्साधुः क्रोधेन भिक्षामुत्पादितवान् । तथा वेन्नातटनगरे कश्चित्संयतो मानेन भिक्षामुत्पादितवान् । तथा वाराणस्यां कश्चित्साधुः मायां कृत्वा भिक्षामुत्पादितवान् । तथान्यः संयतो लोभं प्रदर्य राशियाने भिक्षामुत्पादितवानिति । तेन क्रोधो हस्तिकल्पे, मानो वेन्नातटनगरे माया वाराणस्यां लोभो राशियाने इत्युच्यते । अत्र कथा उत्प्रेक्ष्य वाच्या इति ॥४५४|| पूर्वसंस्तुतिदोषमाह
। किसी तं दाणवदी जसोधरो वेत्ति। पुव्वीसंथुदि दोसो विस्सरिदे बोधणं चावि ॥४५५॥ ददातीति दायको दानपतिः तस्य पुरतः कीति ख्याति ब्रूते । कथं, त्वं दानपतिर्यशोधरः त्वदीया
दोष होता है और यदि लोभ-कांक्षा को दिखाकर भिक्षा उत्पन्न कराते हैं तो लोभ नाम का उत्पादन दोष होता है। इन चारों दोषों में भावों का दोष आदि देखा जाता है । अर्थात् परिणाम दूषित होने से ये दोष माने गये हैं।
पुनरपि इनको दृष्टान्त द्वारा पुष्ट करते हैं--
गाथार्थ हस्तिकल्प में क्रोध, वेन्नतट नगर में मान, वाराणसी में माया और राशियान में लोभ के इस प्रकार इन चारों के दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं ।।४५४॥
प्राचारवत्ति-हस्तिकल्प नाम के पत्तन में किसी साधु ने क्रोध करके आहार का उत्पादन कराकर ग्रहण किया। वेन्नतट नगर में किसी संयत ने मान करके आहार को बनवाकर ग्रहण किया। बनारस में किसी साधु ने माया करके आहार को उत्पन्न कराया तथा राशियान देश में अन्य किसी संयत ने लोभ दिखाकर आहार उत्पन्न कराकर लिया। इसलिए हस्तिकल्प में क्रोध इत्यादि ये चार दृष्टान्त कहे गये हैं । यहाँ पर इन कथाओं को मानकर कहना चाहिए।
पूर्व-संस्तुति दोष को कहते हैं
गाथार्थ-तुम दानपति हो अथवा यशस्वी हो, इस तरह दाता के सामने उसकी प्रशंसा करना और उसके दान देना भूल जाने पर उसे याद दिलाना पूर्व-संस्तुति नाम का दोष है ॥४५५॥
प्राचारत्ति-जो दान देता है, वह दायक कहलाता है, उसके समक्ष उसकी ख्याति करना । कैसे ? तुम दानपति हो, यश को धारण करनेवाले हो, लोक में तुम्हारी कीर्ति फैली १ क विण्णाय
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