SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] [३५५ क्षारतंत्र क्षारद्रव्यं दृष्टवणादिशोधनकरं । शलाकया निर्वत्तं शालाकिक- अक्षिपटलादयुदघाटनं। शल्यं भमिशल्यं शरीरशल्यं च तोमरादिकं शरीरशल्यं अस्थ्यादिकं भूमिशल्यं तस्यापनयनकारक शास्त्रं शल्यमित्यच्यते। तथा विषापनयनशास्त्र विषमिति । भूतापनयननिमित्तं शास्त्र भूतमिति, कार्ये कारणोपचारादिति । अथवा चिकित्साशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते काकाक्षितारकवदिति । एवमष्टप्रकारेण चिकित्साशास्त्रणोपकारं कृत्वाहारादिकं गृह्णाति तदानीं तस्याष्टप्रकारश्चिकित्सादोषो भवत्येव सावद्यादिदोषदर्शनादिति ॥४५॥ क्रोधमानमायालोभदोषान् प्रतिपादयन्नाह कोण य माणेण य मायालोभण चावि उप्पादो। उप्पादणा य दोसो चदुग्विहो होदि णायव्वो॥४५३॥ 'क्रोधमानमायालोभेन च योऽयं भिक्षाया उत्पाद: स उत्पादनदोषश्चतुष्प्रकारस्तैतिव्य इति । क्रोधं कृत्वा भिक्षामूत्पादयति आत्मनो यदि तदा क्रोधो नामोत्पादनदोषः तथा मानं गर्व कृत्वा यद्यात्मनो भिक्षादिकमत्यादयति तदा मानदोषः। मायां कुटिलभावं कृत्वा यद्यात्मनो भिक्षादिकमूत्पादयति मायानामो विषों से होनेवाली बाधा को चिकित्सा करना अर्थात् विष को दूर करना । भूत-भूतपिशाच आदि की चिकित्सा करना अर्थात् भूत आदि को निकालने का शास्त्र । क्षारतन्त्र-सड़े हुए घाव आदि का शोधन करने वालो चिकिस्सा । शालाकिक-शलाका से होने वाली चिकित्सा शालाकिक है अर्थात् नेत्र के ऊपर आए हुए पटल-मोतियाबिन्दु आदि को दूर करके नेत्र को खोलनेवाली चिकित्सा शालाकिक कहलाती है। शल्य-भूमि-शल्य और शरीरशल्य ऐसे दो भेद हैं, तोमर आदि को शरीरशल्य कहते हैं और हड्डी आदि को भूमिशल्य कहते हैं, इन शल्यों को दूर करनेवाले शास्त्र भी शल्य नाम से कहे जाते हैं। यहाँ पर इन आठ चिकित्सा विषयक शास्त्रों को लिया गया है जैसे, विष को दूर करनेवाले शास्त्र विष' नाम से कहे गये हैं। और भूत को दूर करनेवाले शास्त्र 'भूत' नाम से कहे गये हैं। चूँकि कारण में कार्य का उपचार किया गया है। अथवा काकाक्षितारक न्याय के समान चिकित्सा शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए। इन आठ प्रकार के चिकित्सा शास्त्र के द्वारा जो मुनि गृहस्थ का उपकार करके उनसे यदि आहार आदि लेते हैं तो उनके यह आठ प्रकार का चिकित्सा नाम का दोष होता है; क्योंकि इसमें सावद्य आदि दोष देखे जाते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ दोषों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से भी आहार उत्पन्न कराना—यह चार प्रकार का उत्पादन दोष होता है ॥४५३॥ आचारवत्ति-क्रोध को करके अपने लिए यदि भिक्षा उत्पन्न कराते हैं तो क्रोध नाम का उत्पादन दोष होता है। उसी प्रकार से गर्व को करके अपने लिए आहार उत्पन्न कराते हैं तो मान दोष होता है । कुटिल भाव करके यदि अपने लिए आहार उत्पन्न कराते हैं तो माया १क क्रोधेन मानेन मायया लोभेन च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy