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वनीकवचनं निरूपयन्नाह -
साण किविण तिधिमाहणपासंडियसवण कागदाणादो ।
पुणं वेति पुठ्ठे पुणेत्ति य वणीवयं वयणं ॥ ४५१ ॥
शुनां, कृपणादीनां कुष्ट' व्याध्याद्यार्तादीनां अतिथीनां मध्याह्नकालागतानां भिक्षुकाणां, ब्राह्मणानां मांसादिभक्षिणां पाखंडिनां दीक्षोपजीविनां श्रवणानामाजीवकानां छात्राणां वा काकादीनां च यद्दानादिकं दीयते तेन पुण्यं भवति किं वा न भवतीत्येवं पृष्टे दानपतिना, 'भवति पुण्यमिति' यद्येवं ब्रूयात्तद्वनीपकं वचनं दानपत्यनुकूलवचनं प्रतिपाद्य यदि भुञ्जीत तस्य वनीपकनामोत्पादनदोष: दीनत्वादिदोषदर्शनादिति ।। ४५१ ।।
चिकित्सा प्रतिपादयन्नाह -
कोमारतणु तिगिछा रसायणविसभूदखारतंतं च । सालंकिथं च सल्लं तिगिछदोसो दु अट्ठविहो ॥४५२ ॥
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[मूलाचारे
कौमारं बालवैद्यं मासिक सावंत्सरिकादिग्रहवासनहेतुः शास्त्रं तनुचिकित्साज्वरादिनिराकरणं कण्ठोदरशोधनकारणं च रसायनं वलिपलितादिनिराकरणं बहुकालजीवित्वं च विषं स्थावरजंगमं सकृत्रिम भेदभिन्नं । तस्य विषस्य चिकित्सा विषापहारः भूत (तः) पिशाचादि तस्य चिकित्सा भूतापनयनशास्त्रं ।
वनीपक वचन का निरूपण करते हैं
गाथार्थ - कुत्ता, कृपण, अतिथि, ब्राह्मण, पाखण्डी, भ्रमण और कौवा इनको दान आदि करने से पुण्य है या नहीं। ऐसा पूछने पर पुण्य है ऐसा बोलना वनीपक वचन है ॥४५१ ।। आचारवृत्ति - कुत्ते, कृपण आदि-कुष्ठ व्याधि आदि से पीड़ित जन, अतिथिमध्याह्न काल में आगत भिक्षुकजन, ब्राह्मण - मांसादि भक्षण की प्रवृत्तिवाले ब्राह्मण, पाखण्डी - दीक्षा से उपजीविका करनेवाले, श्रमण - आजीवक नाम के साधु अथवा छात्र और कौवे आदि इनको जो दान दिया जाता है, उससे पुण्य होता है या नहीं ? ऐसा दानपति के द्वारा पूछने पर, 'पुण्य होता है' यदि इस प्रकार से मुनि दाता के अनुकूल वचन बोल देते हैं, पुनः दाता प्रसन्न होकर उन्हें आहार देता है और वे ग्रहण कर लेते हैं तो उनके यह वनीपक नाम का उत्पादन दोष होता है । इसमें भी दीनता आदि दोष दिखाई देते हैं ।
चिकित्सा दोष का प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ — कौमार, तनुचिकित्सा, रसायन, विष, भूत, क्षारतन्त्र, शालाकिक और शव्य ये आठ प्रकार का चिकित्सा दोष है ॥४५२।।
प्राचारवृत्ति — कौमार -बाल वैद्य शास्त्र अर्थात् मासिक, सांवत्सरिक आदि पीडा देने वाले ग्रहों के निराकरण के लिए उपायभूत शास्त्र । तनुचिकित्सा - ज्वर आदि को दूर करनेवाले, और कण्ठ, उदर के शोधन करनेवाले शास्त्र । रसायन - शरीर की सिकुड़न वृद्धावस्था आदि को दूर करनेवाली और बहुत काल तक जीवन दान देनेवाली औषधि । विष-स्थावरविष और जंगम विष तथा कृत्रिम विष और अकृत्रिमविष, इन
१ क "कव्यद्या
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