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________________ पिनमाड-आधकारः] [३५३ तमिति । यं प्रहारं छेदं वा दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तच्छिन्ननिमित्तं नाम । तथा यं भूमिविभागं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तद्भीमनिमित्तं नाम । यदन्तरिक्षस्य व्यवस्थितं ग्रहयुद्ध ग्रहास्तमनं ग्रहविर्घातादिकं समीक्ष्य प्रजायाः शुभाशुभं विबुध्यते तदन्तरिक्षं नाम। यत्लक्षणं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते तल्लक्षणनिमित्तं नाम । यं स्वप्नं दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं परिच्छिद्यते तत्स्वप्ननिमित्तं नाम । तथा चशब्देन भूमिगर्जनदिग्दाहादिकं परिगृह्यते । एतेन निमित्तेन भिक्षामुत्पाद्य यदि भक्ते तदा यस्य निमित्तनामोत्पादनदोषः। रसास्वादनदैन्यादिदोषदर्शनादिति ॥४४६।। आजीवं दोषं निरूपयन्नाह जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त प्राजीवं। तेहिं पुण उप्पादो प्राजीव दोसो हवदि एसो ॥४५०॥ जातिर्मातृसन्ततिः । कुल पितृसन्ततिः । मातृशुद्धिः। पितृशुद्धिर्वा । शिल्पकर्म लेपचित्रपुस्तकादिकर्म हस्तविज्ञानं । तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं । ईश्वरत्वं च । आजीव्यतेऽनेनाजीवः । आत्मनो जाति कुलं च निर्दिश्य शिल्पकर्म तपःकर्मेश्वरत्वं च निदिश्याजीवनं करोति यतोऽत आजीववचनान्येतानि तेभ्यो जातिकथनादिभ्यः पुनरुत्पाद आहारस्य योऽयं स आजीवदोषो भवत्येषः वीर्यगहनदीनत्वादिदोषदर्शनादिति ॥४५॥ . शुभ या अशुभ जाना जाता है वह स्वप्न निमित्त है। तथा च शब्द से भूमि, गर्जना, दिग्दाह आदि को भी ग्रहण करना चाहिए अर्थात् इनके निमित्त से भी जो जनता का शुभ-अशुभ जाना जाता है वह सब इनमें ही शामिल हो जाता है। इन निमित्तों के द्वारा जो भिक्षा को उत्पन्न कराकर आहार लेते हैं अर्थात् निमित्त ज्ञान के द्वारा श्रावकों को शुभ-अशुभ बतलाकर पुनः बदले में उनसे दिया हुआ आहार जो मुनि ग्रहण करते हैं उनके यह निमित्त नाम का उत्पादन दोष होता है। इसमें रसों का आस्वादन अर्थात् गृखता और दीनता आदि दोष आते हैं। आजीव दोष का निरूपण करते हैं गाथार्थ-जाति, कुल, शिल्प, तप और ईश्वरता ये आजीव हैं। इनसे पुनः (आहार का) उत्पन्न करना यह आजीव दोष है ॥४५०॥ प्राचारवृत्ति-माता की संतति जाति है। पिता की संतति कुल है । अर्थात् माता के पक्ष की शुद्धि अथवा पिता के पक्ष की शुद्धि को ही यहाँ जाति या कुल कहा है। लेप, चित्र, पुस्तक आदि कर्म या हस्त विज्ञान शिल्पकर्म हैं। तप का अनुष्ठान तपकर्म है। और ईश्वरता, इनके द्वारा जो आजीविका की जाती है वह 'आजीव' कहलाती है। __ कोई साधु अपनी जाति और कुल का निर्देश करके, या शिल्पकर्म या तपश्चरण अथवा ईश्वरत्व को बतलाकर यदि आजीविका करता है अर्थात् जाति आदि के कथन द्वारा अपनी विशेषता बतलाकर पुनः उस दाता के द्वारा दिये गये आहार को जो ग्रहण करता है उसके यह आजीव नाम का दोष होता है; क्योंकि उसमें अपने वीर्य का छिपाना, दीनता आदि करना ऐसे दोष आते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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