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________________ [३४६ पिण्डशुद्धि-अधिकार:] धादीदूदणिमित्त प्राजीवं वणिवग्गे य तेगिछे । कोधी माणी मायी लोही य हवंति दस एवे ॥४४५।। धादी-धात्री माता। दूद-दूतो लेखधारकः । णिमित्त-निमित्तं ज्योतिष । आजीवे-आजीबनमाजीविका। वणिवग्गेय-वनीपकवचनं दातुरनुकलवचनं । तेगिछे-चिकित्सा वद्यशास्त्रं। कोधीक्रोधी। माणी--मानी । माई–मायी । लोही-- लोभी। हवंति बस एवे-भवन्ति दर्शत उत्पादनदोषाः । ॥४४५॥ तथा पुव्वी पच्छा संथुदि विज्जामंते य चुण्णजोगे य। उप्पादणा य दोसो सोलसमो मूलकम्मे य ॥४४६॥ स स्तुतिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । पूर्व संस्तुः तित्पश्चात् संस्तुतिः । पूर्वसंस्तुतिः दानग्रहणात्प्राग्दातुः संस्तवः, दानं गृहीत्वा पश्चाद् दातुः संस्तवनं । विज्जा-विद्याकाशगामिनीरूपपरिवर्तिनी शस्त्रस्तम्भिन्यादिका । मंते च-मंत्रश्च सर्पवृश्चिकविषयपहरणाक्षराणि । चुण्णजोगेय-चूर्ण योगश्च गात्रभूषणादिनिमित्त द्रव्यधुलिः । उप्पादणा य दोसो-उत्पादनायोत्पादननिमित्तं दोष उत्पादनदोषः । स प्रत्येकमभिसम्बध्यते। सोलसमो-षोडशानां पूरण षोडशः । मूलकम्मेय-मूलकर्मावशानां वशीकरणं। धात्रीकर्मणा सहचरितो दोषोऽपि धात्रीत्यूच्यते ॥४४६॥ ___ तं धात्रीदोषं विवृण्वन्नाह गाथार्थ-धात्री, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सा, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी ये दस दोष हैं ॥४४५।। प्राचारवृत्ति-धात्री अर्थात् माता के समान बालक का लालन आदि करके आहार ग्रहण करना, दूत-लेखधारक अर्थात् समाचार को पहुंचाने वाला, निमित्त-ज्योतिष, आजीवन-आजीविका, वनीपक-दाता के अनुकूल वचन, चिकित्सा-वैद्यशास्त्र, क्रोधीक्रोध युक्त, मानी, मायी और लोभी अर्थात् इन-इन कार्यों को करके दाता से आहार ग्रहण करना ये दस उत्पादन दोष हुए । तथा गाथार्थ पूर्व स्तुति, पश्चात् स्तुति, विद्या, मन्त्र, चूर्णयोग और मूलकम ये सब सोलह उत्पादन दोष हैं ।।४४६॥ प्राचारवृत्ति-दान ग्रहण के पहले दाता की स्तुति करना सो पूर्वसंस्तुति है। दान ग्रहण करने के बाद दाता की स्तुति करना सो पश्चात्-स्तुति है। आकाशगामिनी, रूप परिवर्तिनी, शस्त्रस्तंभिनी आदि विद्याएँ हैं। सर्प, बिच्छ आदि के विष दूर करनेवाले मन्त्र कहलाते हैं। शरीर को भूपित करने आदि के लिए निमित्तभूत धूलि आदि वस्तुचूर्ण हैं। और, जो वश नहीं हैं उन्हें वशीकरण करना मूल कर्म है। ये सोलह उत्पादन दोष हैं। अर्थात धात्री कर्म से सहचरित दोष भी धात्री नाम से कहा जाता है । इसी प्रकार सभी में समझना। धात्री दोष को कहते हैं अक्षर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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