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________________ ३३४] [ मूलाचारे स्वध्यासकर्मणो दर्शनाद्यथा' तेषां तदनुष्ठेयं तथा साधूनां तदनुष्ठानमयोग्यं तेन गृहस्थाः । साधवः पुनरनागार निसंगा तो अतो नानुष्ठेयमधः कर्मेति ज्ञापनार्थमेतदिति ॥ ४२४ ॥ उद्गमदोषाणां स्वरूपं प्रतिपादयन् विस्तरसूत्राण्याह देवदपring किविण चावि जं तु उहिसियं । कदमणसमुद्दे चतुव्विहं वा समासेण ॥४२५॥ अधः कर्मण: [ पश्चात् ] औद्देशिकं सूक्ष्मदोषमपि परिहर्तुकामः प्राह - देवता नागयक्षादयः, पाषण्डा जैनदर्शनबहिर्भूतानुष्ठाना लिंगिनः कृपणका दीनजनाः । देवतार्थं पाखण्डार्थ कृपणार्थं चोद्दिश्य यत्कृतमन्नं तन्निमित्तं निष्पन्नं भोजनं तदोद्देशिकं अथवा चतुर्विधं सम्यगौद्देशिकं समासेन जानीहि वक्ष्यमाणेन न्यायेन || ४२५ | या आहार बनाने के लिए कदाचित् श्रावक से कह भी देता है अर्थात् आहार बनवाता भी है तो भी वह अधःकर्म दोष का भागी नहीं होता है। क्योंकि यहाँ पर वैयावृत्ति से अतिरिक्त यदि मुनि स्वयं के आहार हेतु आरम्भ करता या कराता तो अधः कर्म है ऐसा स्पष्ट किया है । 'भगवती आराधना' में समाधि में स्थित साधुओं की परिचर्या में अड़तालीस साधुओं की व्यवस्था बतलाई गयी है । इनमें चार मुनि क्षपक के लिए उद्गमादि दोष रहित भोजन के लिए, तथा चार मुनि उद्गमादि दोष रहित पान के लिए नियुक्त होते हैं । इससे यह प्रतीत होता है कि जब तक क्षपक का शरीर आहार-ग्रहण के योग्य है, पान-ग्रहण के योग्य है किन्तु अतीव कृश हो चुका है, तब तक उनके भोजन-पान की व्यवस्था भिक्षा में सहायक ये चार-चार मुनि करते हैं । वह उनकी वैयावृत्य है और वैयावृत्य में श्रावक के यहाँ ऐसी व्यवस्था कराने में भाग लेने वाले साधु वैयावृत्य कारक होने से दोष के भागी नहीं है। हाँ, यदि वे अपने लिए कृत- कारित अनुमोदना से कोई व्यवस्था श्रावक के माध्यम से बनावें तो वह अर्धः कर्म दोष का भागी है कि सर्वथा त्याज्य है । विशेष जिज्ञासु 'भगवती आराधना' (गाथा ६५ से ६२ ) का अवलोकन करें 1 अब उद्गम दोषों के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए विस्तार से कहते हैं गाथार्थ - देवता के और पाखण्डी के लिए या दोनों के लिए जो अन्न तैयार किया जाता है वह औद्देशिक है अथवा संक्षेप से चार प्रकार का समुद्देश होता है ||४२५ || Jain Education International श्राचारवृत्ति - अब अधःकर्म के पश्चात् औद्देशिक दोष को कहते हैं । यद्यपि यह सूक्ष्मदोष है तो भी इसके परिहार करने की इच्छा से आचार्य कहते हैं- नागयक्ष आदि को देवता कहते हैं । जैन दर्शन से बहिर्भूत अनुष्ठान करनेवाले जो अन्य भेषधारी लिंगी हैं वे पाखण्डी कहलाते हैं । दीनजनों को - दुःखी अधे लंगड़े आदि को कृपण कहते हैं । इन देवताओं के लिए, पाखण्डियों के लिए, और कृपणों को उद्देश्य करके अर्थात् इनके निमित्त से बनाया गया जो भोजन है वह औद्देशिक है । अथवा आगे कहे गये न्याय से संक्ष ेप से समीचीन औद्देशिक चार प्रकार का होता है । २. क यथास्तस्तदनु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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