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पिण्डशुद्धि-अधिकार: ]
उद्दवनं मारणं । विराधनोद्दवनाभ्यां निष्पन्नं संजातं विराधनोद्दवननिष्पन्नं यदाहारादिकं वस्तु तदधः कर्म ज्ञातव्यं । स्वकृतं परकृतानुमतं कारितमात्मनः संप्राप्तः । आत्मनः समुपस्थितं । विराधनोद्दवने अधःकर्मणी पापक्रियेताभ्यां यन्निष्पन्नं तदप्यधः कर्मेत्युच्यते । कार्ये कारणोपचारात् । स्वेनात्मना कृतं परेण कारितं वा परेण वा कृतं, आत्मनानुमतं । विराधनोद्दवननिष्पन्नमात्मने संप्राप्तं यद्वैयावृत्यादिविरहितं तदधः कर्म दूरतः संयतेन परिहरणीयं गार्हस्थ्यमेतत् । वैयावृत्यादिविमुक्तमात्मभोजननिमित्तं पचनं षड्जीवनिकायबधकरं न कर्तव्यं न कारयितव्यमिति । एतत् षट्चत्वारिंशद्दोपवहिर्भूतं सर्वप्राणिसामान्यजातं गृहस्थानुष्ठेयं सर्वथा मुनिना वर्जनीयं । यद्येतत् कुर्यात् श्रवणो गृहस्थः स्यात् । किमर्थमेतदुच्यत इति चेन्नैष दोषः, अन्येषु पाखण्डि
जो आहार आदि उत्पन्न हुआ है; जो स्वयं अपने द्वारा बनाया गया है या पर से कराया गया है अथवा पर के द्वारा करने में अनुमोदना दी गयी है ऐसा जो अपने लिए भोजन बना हुआ है वह अधः कर्म कहलाता है । विराधना और उद्दावन ये अधः कर्म हैं, क्योंकि ये पापत्रिया रूप हैं । इनसे निष्पन्न हुआ भोजन भी अधःकर्म कहा जाता है । यहाँ पर कार्य में कारण का उपचार किया गया है। जीवों को दुःख देकर या घात करके जो भोजन अपने लिए बनता है जिसमें अन्य साधुओं की वैयावृत्य आदि कारण नहीं हैं ऐसा अधः कर्म संयतों को दूर से ही छोड़ देना चाहिए क्योंकि यह गृहस्थों का कार्य है । अर्थात् वैयावृत्य आदि से रहित, अपने भोजन के निमित्त षट्जीव निकाय का वध करनेवाला ऐसा पकाने का कार्यं न स्वयं करना चाहिए और न अन्य से ही कराना चाहिए। यह छयालीस दोषों से बहिर्भूत दोष सभी प्राणियों में सामान्यरूप से पाया जाता है और गृहस्थों के द्वारा किया जाता है इसलिए इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । यदि कोई श्रमण इस दोष को करेगा तो वह गृहस्थ ही जैसा हो जावेगा ।
प्रश्न- तो पुनः यह दोष किसलिए कहा गया है ?
उत्तर-- - ऐसा कहना कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्य पाखंडी साधुओं में ये आरम्भकार्य देखे जाते हैं। जैसे उन लोगों के वह आरम्भ अनुष्ठेय - करने योग्य है, इसके विपरीत जैन साधुओं में उसका करना अयोग्य है । इसीलिए इसके करनेवाले गृहस्थ होते हैं । और फिर साधु तो अनगार हैं और निःसंग हैं इसलिए उन्हें अधः कर्म का अनुष्ठान नहीं करना चाहिए। इस बात को बतलाने के लिए ही यह अधः कर्म दोष कहा गया है।
भावार्थ - प्रश्न यह होता है कि जब यह षट्जीवनिकायों को बाधा देकर या घात करके आरम्भ द्वारा भोजन स्वतः बनाया जाता है अथवा अन्य किसी से कराया जाता है उसे आपने अधः कर्म कहा तो कोई भी दिगम्बर मुनि या आर्यिकाएँ यह दोष करेंगे ही नहीं और यदि करेंगे
गृहस्थ ही हो जायेंगे । पुनः साधु के लिए यह दोष कहा ही क्यों है ? उसका उत्तर आचार्य ने दिया है कि अन्य पाखण्डी साधु नाना तरह के आरम्भ करते हैं । उनकी देखादेखी अगर कोई दिगम्बर साधु भी ऐसा करने लग जावें तो वे इस दोष के भागी हो जायेंगे । और ऐसा निषेध करने से ही तो नहीं करते हैं ऐसा समझना ।
दूसरी बात यह है कि यदि साधु अन्य साधुओं की वैयावृत्ति आदि के निमित्त औषधि १ क कुर्यान्न
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