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________________ ३३२/ [मूलाचारे मिस्सेय - मिश्रश्चासंयतमिश्रणं । ठविदे — स्थापितं स्वगृहेऽन्यगृहे वा । बलि निवेद्यं देवार्चना वा । पाहुडियंप्रावर्तितं कालस्य हानिवृद्धिरूपं । पादुक्कारेथ --- प्राविष्करणं मण्डपादेः प्रकाशनं । कीवेय — क्रीतं वाणिज्यरूपमिति ||४२२ ॥ तथा पामिच्छे– प्रामृष्यं सूक्ष्मर्णमुद्धारकं । परियट्ट - परिवर्तकं दत्वा ग्रहणं । अभिहड - अभिघटो देशान्तरादागतः । उब्भिवणं— उद्भिन्नं बन्धनापनयनं । मालारोहे - मालारोहणं गृहोर्ध्वमाक्रमणं । अच्छिज्जे - अच्छेद्यं त्रासहेतुः । अणिसट्टे – अनीशार्थेऽप्रधानदाता । उद्गमदोषाः षोडशेमे ज्ञातव्याः ॥४२३॥ गृहस्थाश्रितस्याधः कर्मणः स्वरूपं विवृण्वन्नाह - छज्जीवणिकायाणं विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं । श्रधाकम्मं णेयं सयपरक दमादसंपण्णं ॥ ४२४ ॥ षड्जीवनिकायानां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिकानां विराधनं दुःखोत्पादनं । उद्दावणं वस्तु का सहेतुक मिश्रण करना यह पूतिदोष है । असंयतों से मिश्रण करके - साथ में भोजन कराना मिश्रदोष है । भोजन पकाने वाले पात्र से निकालकर अपने घर में अथवा अन्य के घर में रख देना स्थापित दोष है । नैवेद्य या देवार्चना के भोजन को आहार में देना बलिदोष है । काल की हानि या वृद्धि करके आहार देना प्रावर्तित दोष है। मंडप आदि का प्रकाशन करना प्रादुष्करण दोष है। खरीदकर लाकर देना क्रीत दोष है । सूक्ष्म ऋण—कर्जा लेकर अथवा उधार लाकर आहार देना प्रामृष्य दोष है। कोई वस्तु बदले में लाकर आहार में देना परिवर्तक दोष है । अन्य देश से लाया हुआ भोजन देना अभिघट दोष है। सीढ़ी से - निसैनी से गृह के ऊपरी भाग में चढ़कर लाकर कुछ देना मालारोहण दोष है। त्रासहेतु— डर से आहार देना अच्छेद्य दोष है। अनीशार्थ - अप्रधान दाता के द्वारा दिये हुए भोजन को लेना अनीशार्थ दोष है । ये सोलह उद्गम दोष जानने चाहिए । भावार्थ-ये उद्गम आदि सोलह दोष श्रावक के निमित्त से साधु को लगते हैं । जैसे श्रावक ने उनके उद्देश्य से आहार बनाया या उनको आते देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला दिया इत्यादि यह सब कार्यं यदि श्रावक करता है और मुनि वह आहार जानने के बाद भी, ले लेते हैं तो उनके ये औद्देशिक, अध्यधि आदि दोष हो जाते हैं । इसमें प्रारम्भ में जो अधःकर्म दोष बतलाया है वह इन सभी -- छ्यालीस दोषों से से अलग एक महादोष माना गया है । इन सभी दोषों के लक्षण स्वयं ग्रन्थकार आगे गाथाओं द्वारा कहते हैं । 1 गृहस्थ के आश्रित होनेवाले अधः कर्म का स्वरूप बतलाते हैं गाथार्थ - छह जीव - निकायों की विराधना और मारण आदि से बनाया हुआ अपने निमित्त स्व या पर से किया गया जो आहार है वह अधः कर्म दोष से दूषित है ऐसा जानना चाहिए ॥४२४॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति-- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की विराधना से — उनको दुःख उत्पन्न करके या उनका उद्दावन - मारण करके, घात करके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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