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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकार: ] [ ३३१ अश्यते भुज्यते येभ्यः पारिवेषकेभ्यस्तेषामशुद्धयोऽशनदोषाः । संयोज्यते संयोजनमात्रं वा संयोजनदोषः । प्रमाणातिरेकः प्रमाणदोषः । अङ्गारमिवाङ्गारदोषः । धूम इव धूमदोषः । कारणनिमित्तं कारणदोषः । एवं एतैरष्टभिर्दोष रहिताष्टप्रकारा पिण्डशुद्धिरिति संग्रहसूत्रमेतत् ||४२१॥ उद्गमदोषाणां नामनिर्देशायाह - प्रधाकम्मुद्देसिय अज्झोवज्भेय पूदिमिस्से य । विदे बलि पाहुडिदे पादुक्कारे य कीदे य ॥४२२॥ पामिच्छे परिट्टे अभिहडमुभिण्ण' मालआरोहे । श्रच्छिज्जे प्रणिसट्टे उग्गमदोसा दु सोलसिमे ॥४२३॥ गृहस्थाश्रितं पंचसूनासमेतं तावत्सामान्यभूतमष्टविधपिण्डशुद्धिं वाह्य महादोषरूपमधः कर्म कथ्यते । आधाकम्म- अधः कर्म निकृष्टव्यापारः षड्जीवनिकायवधकरः । उद्दिश्यते इत्युद्देशः उद्देशे भव औद्देशिकः । अशोवमेय अध्यधिसंयतं दृष्ट्वा पाकारम्भः । पूदि - पूतिरप्रासुकप्रासुकमिश्रणं सहेतुकं । उत्पन्न होता है - वह उद्गम दोष है और पात्र में होने वाले जिन अभिप्रायों से आहार आदि उत्पन्न होता है या कराया जाता है वह उत्पादन दोष है । जिन पारिवेशक - परोसने वालों से भोजन किया जाता है उनकी अशुद्धियाँ अशनदोष कहलाती हैं । जो मिलाया जाता है अथवा किसी वस्तु का मिलाना मात्र ही संयोजना दोष है । प्रमाण का उल्लंघन करना प्रमाणदोष है । जो अंगारों के समान है वह अंगार दोष है, जो धूम के समान है वह धूमदोष है और जो कारण - निमित्त से होता है वह कारणदोष है। इस प्रकार इन आठ दोषों से रहित आठ प्रकार की fisशुद्धि होती है । इस तरह यह संग्रहसूत्र है । अर्थात् इस गाथा में संपूर्ण शुद्धियों का संग्रह हो जाता है । उद्गम दोषों के नाम निर्देश हेतु कहते हैं गाथार्थ - अधः कर्म महादोष है । औद्देशिक, अध्यधि, पूति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्रावर्तित, प्रादुष्कार, क्रोत, प्रामृष्य, परिवर्तक, अभिघट, उद्मिन्न, मालारोह, अच्छेद्य और अनिसृष्ट ये सोलह उद्गम दोष हैं ।।४२२-२३। आचारवृत्ति - अधः कर्म नाम का एक दोष इन सभी दोषों से पृथक् ही है । जो यह सामान्य रूप आठ प्रकार की पिंडशुद्धि कही गई है, इनमे बाह्य महादोषरूप अधः कर्म कहा गया है, जो कि पाँच सूना से सहित है और गृहस्थ के आश्रित है अर्थात् गृहस्थों के द्वारा ही करने योग्य है । यह अधःकर्म छह जीवनिकायों का वध करनेवाला होने से निकृष्ट व्यापार रूप है। जो उद्देश करके — निमित्त करके किया जाता है अथवा जो उद्देश से हुआ है वह औद्देशिक दोष है । संयत को आते देखकर भोजन पकाना प्रारम्भ करना अर्थात् संयत को देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला देना अध्यधि दोष है । अप्रासुक और प्राक १. क "मुज्झिणमालमारोहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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