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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः ] तमेव चतुर्विधं प्रतिपादयन्नाह - जावदियं उद्द सो पाडोति य हवे समुद्दे सो । समणोत्ति य श्रादेसी णिग्गंथोति य हवे समादेसो ॥४२६ ।। यावान् कश्चिदागच्छति तस्मै सर्वस्मै दास्यामीत्युद्दिश्य यत्कृतमन्नं स यावानुद्देश इत्युच्यते । ये केचन पाखण्डिन आगच्छन्ति भोजनाय तेम्यः सर्वेभ्यो दास्यामीत्युद्दिश्य कृतमन्नं स पाखण्डिन इति च भवेत्समुद्देशः । ये केचन श्रवणा आजीवकतापस रक्तपटपरिव्राजकारछात्रा वागच्छन्ति भोजनाय तेभ्यः सर्वेभ्योऽहमाहारं दास्यामीत्युद्दिश्य कृतमन्नं स श्रवण इति कृत्वादेशो भवेत् । ये केचन निर्ग्रन्थाः साधव आगच्छन्ति तेभ्यः सर्वेभ्यो दास्यामीत्युद्दिश्य कृतमन्नं निर्ग्रन्था इति च भवेत्समादेशः । सामान्यमुद्दिश्य पाषण्डानुद्दिश्य श्रवणानुद्दिश्य निर्ग्रन्थानुद्दिश्य यत्कृतमम्नं तचतुर्विधमोद्देशिकं भवेदन्नमिति । उद्देशेन निर्वर्तितमीद्द शिकमिति अध्यधिदोषस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह- ॥४२६॥ " [३३५ उन्हीं चार भेदों को प्रतिपादित करते हैं गाथार्थ - हर किसी को उद्देश्य करके बनाया गया अन्न उद्देश है, पाखण्डियों को निमित्त करके समुद्देश है, श्रमण को निमित्त करके आदेश और निर्ग्रन्थ को निमित्त कर समादेश होता है ॥४२६॥ आचारवृत्ति - जो कोई भी आयेगा उन सभी को मैं दे दूंगा ऐसा उद्देश्य करके बनाया गया जो अन्न है वह उद्देश कहलाता है । जो भी पाखण्डी लोग आयेंगे उन सभी को मैं भोजन कराऊँगा ऐसा उद्देश्य करके बनाया गया भोजन समुद्देश कहलाता है । जो कोई श्रवण अर्थात् आजीवक तापसी, रक्तपट - बौद्ध साधु परिव्राजक या छात्र जन आयेंगे उन सभी को मैं आहार देऊँगा इस प्रकार से श्रमण के निमित्त बनाया हुआ अन्न आदेश कहलाता है । जो कोई भी निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु आयेंगे उन सभी को मैं देऊँगा ऐसा मुनियों को उद्देश्य कर बनाया गया आहार समादेश कहलाता है । तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य को उद्देश्य करके, पाखण्डियों को उद्देश्य करके, श्रवणों को निमित्त करके और निर्ग्रन्थों को निमित्त करके बनाया गया जो भोजन है वह चार प्रकार का औद्देशिक अन्न है। चूंकि उद्देश से बनाया गया है इसलिए यह अद्देशिक कहलाता है । Jain Education International भावार्थ - ऐसे औद्देशिक अन्न को जानकर भी जो मुनि ले लेते हैं वे इस दोष से दुषित होते हैं। यदि वे मुनिं कृत-कारित अनुमोदना और मन-वचन-काय इन तीनों से गुणित (३ x ३ = ९ ) नव कोटि से रहित रहते हैं तो उन्हें यह दोष नहीं लगता है । श्रावक अतिथिविभाग व्रत का पालन करते हुए सामान्यतया शुद्ध भोजन बनाता है और मुनियों को पड़गाहन करके आहार देता है। तथा साधु भी अपने आहार हेतु कृत-कारित अदि नवभेदों को न करते हुए आहार लेते हैं वही निर्दोष आहार है । अध्यधि दोष का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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