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________________ यहाँ पर उनके नाम, उनका श्वेताम्बरों के साथ वाद, विदेहगमन, ऋद्धि-प्राप्ति, उनकी रचनायें, उनके गुरु, उनका जन्म स्थान और उनका समय इन आठ विषयों का किंचित् दिग्दर्शन कराया जाता है १. नाम-मूलनन्दि संघ की पट्टावली में पांच नामों का उल्लेख है आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छ: पद्मनन्दीति तन्नुतिः ।। कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनन्दि-मोक्षपाहड की टीका की समाप्ति में भी ये पाँच नाम दिए गए हैं तथा देवसेनाचार्य, जयसेनाचार्य आदि ने भी इन्हें पद्मनन्दि नाम से कहा है । इनके नामों की सार्थकता के विषय में पं० जिनदास फडकुले ने मूलाचार की प्रस्तावना में कहा है-इनका कुन्दकुन्द यह नाम कौण्डकुण्ड नगर के वासी होने से प्रसिद्ध है। इनका दीक्षा नाम पद्मनन्दी है। विदेहक्षेत्र में मनुष्यों की ऊंचाई ५०० धनुष और इनकी वहाँ पर साढ़े तीन हाथ होने से इन्हें समवसरण में चक्रवर्ती ने अपनी हथेली में रखकर पूछा'प्रभो, नराकृति का यह प्राणी कौन है ?' भगवान ने कहा, 'भरतक्षेत्र के यह चारण ऋद्धिधारक महातपस्वी पद्मनन्दी नामक मुनि हैं' इत्यादि। इसलिए उन्होंने इनका एलाचार्य नाम रख दिया। विदेह क्षेत्र से लौटते समय इनकी पिच्छी गिर जाने से गद्धपिच्छ लेना पड़ा, अतः 'गद्धपिच्छ' कहलाये। और अकाल में स्वाध्याय करने से इनकी ग्रीवा टेढ़ी हो गयी तब ये 'वक्रग्रीव' कहलाये । पुनः सुकाल में स्वाध्याय से ग्रीवा ठीक हो गयी थी।" इत्यादि। २. श्वेताम्बरों के साथ वाद-गुर्वावली में स्पष्ट है"पद्मनन्दि गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:, पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती। उजयंतगिरी तेन गच्छ: सारस्वतोऽभवत्, अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपद्मनन्दिने ।" बलात्कार गणाग्रणी श्री पद्मनन्दी गुरु हुए हैं जिन्होंने ऊर्जयंतगिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वती की मूर्ति को बुलवा दिया था। उससे सारस्वत गच्छ हुआ, अतः उन पद्मनन्दी मुनीन्द्र को नमस्कार हो। पाण्डवपुराण में भी कहा है "कुन्दकुन्दगणी येनोर्जयन्तगिरिमस्तके, सोऽवदात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिका कली। जिन्होंने कविकाल में ऊर्जयन्त गिरि के मस्तक पर पाषाणनिर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा दिया। कवि वृन्दावन ने भी कहा हैसंघ सहित श्री कुन्दकुन्द, गुरु वन्दन हेतु गये गिरनार । वाद पर्यो तहं संसयमति सों, साक्षी बनी अंबिकाकार। 'सत्यपंथ निग्रंथ दिगम्बर,' कही सुरी तहं प्रगट पुकार । सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघन हरण मंगल करतार । आद्य उपोद्घात | ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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