________________
प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । इसलिए यह मूलाचार श्री कुन्दकुन्ददेव की कृति है, और श्री कुन्दकुन्ददेव का ही दूसरा नाम 'वट्टकेराचार्य' है, यह बात सिद्ध होती है ।
जैन हास के माने हुए विद्वान् स्व० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित 'पुरातनवाक्य सूची' की प्रस्तावना में मूलाचार को कुन्दकुन्द रचित मानते हुए वट्टकेर और कुन्दकुन्द को अभिन्न दिखलाया है।
श्राचार्य कुन्दकुन्ददेव
दिगम्बर जैन आम्नाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम श्री गणधर देव के पश्चात् लिया जाता है । अर्थात् गणधर देव के समान ही इनका आदर किया जाता है और इन्हें अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है । यथा
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽतु मंगलम् ।।
यह मंगल - श्लोक शास्त्र स्वाध्याय के प्रारम्भ में तथा दीपावली के वही- पूजन व विवाह आदि के मंगल प्रसंग पर भी लिया जाता है । ऐसे आचार्य के विषय में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के लेखक लिखते हैं
"आप अत्यन्त वीतरागी तथा अध्यात्मवृत्ति के साधु थे । आप अध्यात्म विषय में इतने गहरे उतर चुके थे कि आपके एक-एक शब्द की गहनता को स्पर्श करना आज के तुच्छ बुद्धि व्यक्तियों की शक्ति के बाहर है। आपके अनेक नाम प्रसिद्ध हैं । तथा आपके जीवन में कुछ ऋद्धियों व चमत्कारिक घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है । अध्यात्म प्रधानी होने पर भी आप सर्व विषयों के पारगामी थे और इसीलिए आपने सर्व विषयों पर ग्रन्थ रचे हैं । आज के कुछ विद्वान् इनके सम्बन्ध में कल्पना करते हैं कि इन्हें करणानुयोग व गणित आदि विषयों का ज्ञान न था, पर ऐसा मानना उनका भ्रम है क्योंकि करणानुयोग के मूलभूत व सर्वप्रथम ग्रन्थ षट्खंडागम पर आपने एक परिकर्म नाम की टीका लिखी थी, यह बात सिद्ध हो चुकी है। यह टीका आज उपलब्ध नहीं है ।
इनके आध्यात्मिक ग्रन्थों को पढ़कर अज्ञानी जन उनके अभिप्राय की गहनता को स्पर्श न करने के कारण अपने को एकदम शुद्ध-बुद्ध व जीवन्मुक्त मानकर स्वच्छन्दाचारी बन जाते हैं, परन्तु वे स्वयं महान् चारित्रवान थे। भले ही अज्ञानी जगत् उन्हें न देख सके, पर उन्होंने अपने शास्त्रों में सर्वत्र व्यवहार व निश्चयनयों का साथ-साथ कथन किया है । जहाँ वे व्यवहार को हेय बताते हैं वहाँ उसकी कथंचित् उपादेयता बताये बिना नहीं रहते। क्या ही अच्छा हो कि अज्ञानी जन उनके शास्त्रों को पढ़कर संकुचित एकान्तदृष्टि अपनाने के बजाय व्यापक अनेकान्त दृष्टि अपनायें ।"
१. जैनेन्द्रसिद्धांत कोश भाग २, पृ. १२६
३६ / मलाचार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org