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अर्थात् श्वेताम्बर संघ ने वहाँ पर पहले वन्दना करने का हठ किया तब निर्णय यह हुआ कि जो प्राचीन सत्यपंथ के हों वे ही पहले वन्दना करें। तब श्री कुन्दकुन्द देव ने ब्राह्मी की मूर्ति से कहलवा दिया कि "सत्यपंथ निग्रन्थ दिगम्बर" ऐसी प्रसिद्धि है ।
३. विदेह गमन- - देवसेनकृत दर्शनसार ग्रन्थ सभी को प्रामाणिक है । उसमें लिखा हैजप मणदिणाही सीमंधरसामिदिव्वणाणेण ।
ण विवोइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ ४३ ॥
यदि श्री पद्मनन्दीनाथ सीमन्धर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को कैसे जानते ! पंचास्तिकाय टीका के प्रारम्भ में श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है - " .. प्रसिद्ध कथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञसीमन्धरस्वा मितीर्थंकरपरम देवं वृष्ट्वा च तन्मुखकमलविनिर्गतविव्यवर्ण पुनरप्यागतैः श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः ।" श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभृत के प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में "पूर्व विदेहपुण्डरीकिणीनगर वंदित सीमन्धरापर-नाम स्वयंप्रभजिनेन तच्छ्र तज्ञानसम्बोधित भरतवर्ष भव्यजनेन ।” इत्यादिरूप से विदेहगमन की बात स्पष्ट कही है।
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४. ऋद्धिप्राप्ति - श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' नामक पुस्तक के चौथे भाग के अन्त में बहुत-सी प्रशस्तियाँ दी हैं । उनमें देखिये
"श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनाम
ह्याचार्य शब्दोत्तर कौण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्य
चारित्रसंजातसुचारणद्धिः ॥
"वंद्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः, कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्तिविभूषिताशः ।
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यश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीक
श्चक्रेश्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्। "श्री कोण्ड कुन्दादिमुनीश्वराख्य
स्सत्संयमादुद्गतचारर्णाद्धः ॥४॥
........चारित्र संजातसुचारणद्धि* ॥४॥ "तद्वंशाकाशदिनमणिसीमंधर वचनामृतपान
१. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ४, पृ. ३६८
२. पुस्तक वही पृ. ३७४
३. पु. वही पृ. ३८३
४. पु. वही पृ. ३८७ ५. पु. वही पृ. ४०४
३८ / मूलाधार
—संतुष्टचित्तश्री कुन्दकुन्दाचार्याणाम् ||५||
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