SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२६] [ मूलाचारे बलवीर्यं चावगूहितं तेन वीर्याचारो नानुष्ठितः स्यात्तस्मात् सानुमतिस्त्रिप्रकारापि त्याज्या वीर्याचारमनुष्ठतेति ॥ ४१५ ।। सप्तदशप्रकारसंयमं प्रतिपादयन्नाह - पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो । विगतिगचदुपंचेंद्रिय प्रजीवकायेसु संजमणं ॥ ४१६॥ पृथव्युदकतेजोवायुवनस्पतिकायिकानां संयमनं रक्षणं संयमो ज्ञातव्यः । तथा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियाणां संयमनं रक्षणं संयमः । अजीवकायानां शुष्कतृणादीनामच्छेदनं । कायभेदेन पंचत्रकार: संयमस्त्रसभेदेन चतुर्विधोऽजीवरक्षणेन चैकविध इति दशप्रकारः संयमः ।।४१६ ।। तथा पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेखुश्रवहट्टु संजमो चेव । मणवयणकायसंजम सत्तरसविहो दु णादव्वो ॥ ४१७॥ अप्रतिलेखश्चक्षुषा पिच्छिकया वा द्रव्यस्य द्रव्यस्थानस्याप्रतिलेखनमदर्शनं तस्य संयमनं दर्शनं प्रतिलेखनं वा प्रतिलेखसंयमः । दुःप्रतिलेखो दुष्ठुप्रमार्जनं जीवघातमर्दनादिकारकं तस्य संयमनं यत्नेन प्रतिनहीं किया है ऐसा समझना । इसलिए वीर्याचार का अनुष्ठान करनेवाले आचार्यों को इन तीनों प्रकार की अनुमति का त्याग कर देना चाहिए । सत्रह प्रकार के संयम का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ - पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इनका संयम जानना चाहिए और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा अजीव कायों का संयम करना चाहिए ॥ ४१६ ॥ श्राचारवृत्ति - पृथिवी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति इन पाँच प्रकार के स्थावर कायिक जीवों का संयमन अर्थात् रक्षण करना; द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय इन चार प्रकार के त्रसकायिक जीवों का रक्षण करना तथा सूखे तृण आदि अजीव कायों का छेदन करना -- इस प्रकार से पाँच स्थावरकाय, चार सकाय और एक अजीव काय इनके रक्षण से यह दश प्रकार का संयम होता है । तथा Jain Education International गाथार्थ - अप्रतिलेख, दुष्प्रतिलेख, उपेक्षा और अपहरण इनमें संयम करना तथा मन-वचन-काय का संयम ऐसे सत्रह प्रकार का संयम जानना चाहिए ॥ ४१७ || श्राचारवृत्ति - चक्षु, के द्वारा अथवा पिच्छिका से द्रव्य का और द्रव्य स्थान का प्रति लेखन नहीं करना अप्रतिलेख है । तथा शास्त्र आदि वस्तु को चक्ष से देखकर, उनका और उनके स्थानों का पिच्छी के द्वारा प्रतिलेखन करना प्रतिलेख संयम कहलाता है । इन शास्त्रादि द्रव्य का और उनके स्थानों का ठीक से प्रमार्जन नहीं करना अर्थात् जीव घात या मर्दन आदि करनेवाला प्रमार्जन करना दुष्प्रतिलेख है । किन्तु उसका संयम करना, ठीक से प्रमार्जन करना, यत्नपूर्वक प्रमाद के बिना प्रतिलेखन करना दुष्प्रतिलेख का संयम हो जाता है। उपकरण आदि को किसी जगह स्थापित करके पुनः कालान्तर में भी उन्हें नहीं देखना अथवा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy