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पंचाचाराधिकारः]
[३२५ प्रतिसेवा प्रतिश्रवणं संवासश्चैवानुमतिस्त्रिविधा । अथ कि प्रतिसेवाया लक्षणं ? आह-उद्दिष्टं दात्रा पात्रमुद्दिश्यं पात्राभिप्रायेणाहारादिकमुपकरणादिकं चोपनीतं तदानीतमाहारादिकं यदि भुक्तेऽनुभवति । उपकरणादिकं च प्रासुकमानीतं दृष्ट्वा भोगयति सेवते यदि तदा तस्य पात्रस्य प्रतिसेवानामानुमतिभेद: स्यात् ॥४१४॥ तथा
उद्दिढ जदि विचरदि पुव्वं पच्छा व होदि पडिसुणणा।
सावज्जसंकिलिट्ठो ममत्तिभावो दु संवासो ॥४१५॥
पूर्वमेवोपदिष्टं यावत्तद्वस्तु न गृह्णाति साधुस्तावदेव पूर्व प्रतिपादयति दाता, भवतो निमित्तं मया संस्कृतमाहारादिकं प्रासुकमुपकरणं वा तद्भवान् गृह्णातु । एवं पूर्वमेव श्रुत्वा यदि विचरति गृह्णाति । अथवा दत्वाहारादिकमुपकरणं पश्चान्निवेदयति युष्मन्निमित्तं मया संस्कृतं तद्भवद्भिगृहीतं अद्य मे संतोषः संजातः इति श्रुत्वा तूष्णींभावेन सन्तोषेण वा तिष्ठति तदा तस्य प्रतिश्रवणानामानुमतिभेदो द्वितीयः स्यादिति । तथा सावद्यसंक्लिष्टो योऽयं ममत्वभावः स संवासः । गहस्थैः सह संवसति ममेदमिति भावं च करोत्याहाराद्यपकरणनिमित्तं सर्वदा संक्लिष्टः सन् संवासनामानुमतिभेदस्तृतीयः एवं त्रिप्रकारामनुमतिं कुर्वता यथोक्तं नाचरितं
प्राचारवृत्ति-प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण और संवास ये तीन प्रकार की अनुमति हैं। प्रतिसेवा का क्या लक्षण है ? दाता यदि पात्र का उद्देश्य करके अर्थात् पात्र के अभिप्राय से जो आहार आदि और उपकरण आदि बनाता है या लाता है और पात्र यदि उस आहार आदि को ग्रहण करता है । तथा लाये गये उपकरण आदि को प्रासुक समझकर यदि सेवन करता है तब उस पात्र के प्रतिसेवा नाम का अनुमति दोष होता है । तथा
गाथार्थ-पूर्व में कथित उद्दिष्ट को ग्रहण कर अथवा बाद में कथित को सुनकर यदि मुनि संतोष ग्रहण करता है तो प्रतिश्रवण दोष आता है । इसी प्रकार सावद्य से संक्लिष्ट ममत्व भाव संवास दोष है ।।४१५॥
प्राचारवृत्ति-पूर्व में उपदिष्ट वस्तु जब तक साधु ग्रहण नहीं करता है उसके पहले ही आकर यदि दाता कह देता है कि आपके निमित्त मैंने यह प्रासुक आहार आदि अथवा उपकरण आदि बनाये हैं, इनको आप ग्रहण कीजिये और साधु पूर्व में ही ऐसा सुनकर यदि उस आहार को अथवा उपकरण आदि को ग्रहण कर लेता है अथवा यदि दाता आहार या उपकरण आदि देकर के पश्चात् निवेदन करता है कि आपके निमित्त मैंने यह बनवाया था आपने उसे ग्रहण कर लिया इसलिए आज मुझे बहुत ही संतोष हो गया, ऐसा सुनकर यदि मुनि मौन से या संतोष से रह जाते हैं तब उनके प्रतिश्रवण नाम का दूसरा अनुमति दोष होता है।
__ उसी प्रकार से जो यह सावद्य से संक्लिष्ट ममत्व भाव है वह संवास कहलाता है। जो मुनि गृहस्थों के साथ संवास करता है और आहार तथा उपकरण आदि के निमित्त हमेशा संक्लिष्ट होता हुआ 'यह मेरा है' ऐसा भाव करता है उसके संवास नाम का तीसरा अनुमति दोष होता है।
इस प्रकार की अनुमति को करते हुए आगमोक्त चारित्र का जिन्होंने आचरण नहीं किया है और जिन्होंने अपने बल-वीर्य को छिपा रखा है उन मुनि ने वीर्याचार का अनुष्ठान
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