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[मूलाधार अणुगूहियबलविरियो परक्कामदि जो जहुत्तमाउत्तो।
जुजदि य जहाथाणं विरियाचारोत्ति णादव्वो॥४१३॥
अनुगृहितवलवीर्य अनिगूहितमसंवृतमपह्नतं बलमाहारोषधादिकृतसामर्थ्य, वीर्य वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं संहननापेक्षं स्थामशरीरावयवकरण न रणजंघोरुकटिस्कन्धादिघनघटितबन्धापेक्ष। अनिगहिते बलवीयें येनासावनिगहितबलवीर्यः । पराक्रमते चेष्टते समुत्सहते यो यथोक्तं तपश्चारित्रं त्रिविधानुमतिरहितं सप्तदशप्रकारसंयमविधानं प्राणसंयम तथेन्द्रियसंयमं चैतद्यथोक्तं । अनिगहितबलवीर्यो यः कुरुते युनक्ति चात्मानं यथास्थानं यथाशरीरावयवावष्टंभं यः स वीर्याचार इति ज्ञातव्यों भेदात् । अश्या तस्य वीर्याचारो ज्ञातव्यः इति ॥४१३॥
त्रिविधानुमतिपरिहारो यथोक्तमित्युक्तस्तथा सप्तदशप्रकारं प्राणसंयमनमिन्द्रियसंयमनं च यथोक्तमित्युक्तं । तत्र का त्रिविधानुमतिः कश्च सप्तदशप्रकार: प्राणसंयमः को वेन्द्रियसंयम इति पृष्टे उत्तरमाह--
पडिसेवा पडिसुणणं संवासो चेव अणुमदी तिविहा । उद्दि8 जदि भुंज दि भोगदि य होदि पडिसेवा ॥४१४॥
गाथार्थ-अपने बल वीर्य को न छिपाकर जो मुनि यथोक्त तप में यथास्थान अपनी आत्मा को लगाता है उसे वीर्याचार जानना चाहिए ॥४१३॥
प्राचारवृत्ति-आहार तथा औषधि आदि से होनेवाली सामर्थ्य को बल कहते हैं। जो वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है और संहनन की अपेक्षा रखता है तथा स्वस्थ शरीर के अवयव हाथ, पैर, जंघा, घुटने, कमर, कंधे आदि को मजबूत बन्धन की भी अपेक्षा से सहित है वह वीर्य है। जो मुनि अपने बल और वीर्य को छिपाते नहीं हैं, वे ही उपर्यक्त तपश्चरण में उत्साह करते हैं। तीन प्रकार की अनुमति से रहित, आगम में कथित सत्रह प्रकार के संयम-प्राणी संयम तथा इन्द्रिय संयम को पालते हैं। तात्पर्य यह है कि जो साधु अपने बल वीर्य को नहीं छिपाते हैं, वे अपने शरीर अवयव के अवलम्बन से यथायोग्य आगमोक्त चारित्र में अपनी आत्मा को लगाते हैं वही उनका वीर्याचार कहलाता है।
जो आपने तीन प्रकार की अनुमति का परिहार कहा है, तथा सत्रह प्रकार का संयम प्राण संयम और इन्द्रिय संयम कहा है उनमें से तीन प्रकार की अनुमति क्या है ? तथा सत्रह प्रकार का प्राणसंयम क्या है ? अथवा इन्द्रिय संयम क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं
गाथार्थ प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण, और संवास इस प्रकार अनुमति तीन प्रकार की है। यदि उद्दिष्ट भोजन और उपकरण आदि सेवन करता है तो उसके प्रतिसेवा होती है ॥४१४॥ यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है
बलवीरियसत्तिपरक्कमधिदिबलमिदि पंचधा उत्त।
तेसिं तु जहाजोगं आचरणं वीरियाचागे॥
अर्थात बल, वीर्य, शक्ति, पराक्रम और धृतिबल ये पाँच प्रकार कहे गये हैं। इनके आश्रय से जो यथायोग्य आचरण किया जाता है उसे वीर्याचार कहते हैं।
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