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________________ पंचाचाराधिकारः ] [३२३ द्रव्यक्षेत्र कालभावानाश्रित्य तपः कुर्यात् । यथा वातपित्तश्लेष्मविकारो न भवति । आनुपूर्व्यानुक्रमेण क्रमं त्यक्त्वा यदि तपः करोति चित्तसंक्लेशो भवति संक्लेशाच्च कर्मबन्धः स्यादिति ॥ ४११ ॥ तपोऽधिकारमुपसंहरन् वीर्याचारं च सूचयन्नाह अब्भंतर सोहणी एसो अब्भंतरो तम्रो भणिओ । एतो विरियाचारं समासश्रो वण्णइस्सामि ||४१२ ॥ अभ्यन्तरशोधनकमेतदभ्यन्तरतपो भणितं भावशोधनायैतत्तपः तथा वाह्यमप्युक्तं । इत ऊर्ध्वं वीर्याचारं वर्णयिष्यामि संक्षेपत इति ॥ ४१२ ।। भाव कहते हैं । अपनी प्रकृति आदि के अनुकूल इन द्रव्य, क्ष ेत्र, काल और भाव को देखकर तपचरण करना चाहिए। जिस प्रकार से वात, पित्त या कफ का विकार उत्पन्न न हो, अनुक्रम से ऐसा ही तप करना चाहिए । यदि मुनि क्रम का उलंघन करके तप करते हैं तो चित्त में संक्लेश हो जाता है और चित्त में संक्लेश के होने से कर्म का बन्ध होता है । भावार्थ - जिस आहार आदि द्रव्य से वात आदि विकार उत्पन्न न हो, वैसा आहार आदि लेकर पुनः उपवास आदि करना चाहिए। किसी देश में वात प्रकोप हो जाता है, किसी देश में पित्त का या किसी देश में कफ का प्रकोप बढ़ जाता है ऐसे क्षेत्र को भी अपने स्वास्थ्य के अनुकूल देखकर ही तपश्चरण करना चाहिए। जैसे, जो उष्ण प्रदेश हैं वहाँ पर उपवास अधिक होने से पित्त का प्रकोप हो सकता है । ऐसे ही शीत काल, ऊष्णकाल, और वर्षा काल में भी अपने स्वास्थ्य को संभालते हुए तपश्चरण करना चाहिए। सभी ऋतुओं में समान उपवास आदि से वात, पित्त आदि विकार बढ़ सकते हैं। तथा जिस प्रकार से परिणामों में संक्लेश न हो इतना ही तप करना चाहिए। इस तरह सारी बातें ध्यान में रखते हुए तपश्चरण करने से कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष की सिद्धि होती है । अन्यथा, परिणामों में क्लेश हो जाने से कर्मबन्ध जाता है । यहाँ इतना ध्यान 'रखना आवश्यक है कि प्रारम्भ में उपवास, कायक्लेश आदि को करने में परिणामों में कुछ क्लेश हो सकता है । किन्तु अभ्यास के समय उससे घबराना नहीं चाहिए । धीरे-धीरे अभ्यास को बढ़ाते रहने से बड़े-बड़े उपवास और कायक्लेश आदि सहज होने लगते हैं । अब तप आचार के अधिकार का उपसंहार करते हुए और वीर्याचार को सूचित करते हुए आचार्य कहते हैं गाथार्थ - अन्तरंग को शुद्ध करनेवाला यह अन्तरंग तप कहा गया है। इसके बाद संक्षेप से वीर्याचार का वर्णन करूँगा ॥४१२ ॥ श्राचारवृत्ति - भावों को शुद्ध करने के लिए यह अभ्यन्तर तप कहा गया है और इसकी सिद्धि के लिए बाह्य तप को भी कहा है । अब इसके बाद मैं वीर्याचार को थोड़े रूप में कहूँगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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