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________________ ३२२] [mat भविष्यति स्वाध्यायसमानं तपःकर्म । द्वादशविधेऽपि तपसि मध्ये स्वाध्यायसमानं तपोनुष्ठानं न भवति न भविष्यति ॥४०॥ सज्झायं कुव्वतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तोय। हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहियो भिक्खू ॥४१०॥ स्वाध्यायं कुर्वन् पंचेन्द्रियसंवृतः त्रिगुप्तश्चेन्द्रियव्यापाररहितो मनोवाक्कायगुप्तश्च, भवत्येकाममना: शास्त्रार्थतन्निष्ठो विनयेन समाहितो विनययुक्तो भिक्षः साधुः । स्वाध्यायस्य माहात्म्यं दर्शितमाभ्यां गाथाभ्यामिति ॥४१०॥ तपोविधानक्रममाह सिद्धिप्पासादवदंसयस्स करणं चदुव्विहं होदि । दव्वे खेत्ते काले भावे वि य प्राणुपुवीए ॥४१॥ तस्य द्वादशविधस्यापि तपसः किविशिष्टस्य, सिद्धिप्रासादावतंसकस्य मोक्षगृहकर्णपूरस्य मण्डनस्याथवा सिद्धिप्रासादप्रवेशकस्य करणमनुष्ठानं चतुर्विधं भवति । द्रव्यमाहारशरीरादिकं । क्षेत्रमनूपमरुजांगलादिकं स्निग्धरूक्षवातपित्तश्लेष्मप्रकोपकं । कालः शीतोष्णवर्षादिरूपः। भाव: (व) परिणामश्चित्तसंक्लेशः। अभ्यन्तर रूप बारह प्रकार के तपों में भी स्वाध्याय के समान न कोई अन्य तप है ही और न ही होगा। अर्थात् बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय तप सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ___ गाथार्थ-विनय से सहित हुआ मुनि स्वाध्याय को करते हुए पंचेन्द्रिय से संवृत्त और तीन गुप्ति से गुप्त होकर एकाग्रमनवाला हो जाता है ॥४१०॥ प्राचारवृत्ति-जो मुनि विनय से युक्त होकर स्वाध्याय करते हैं वे उस समय स्वाध्याय को करते हुए पंचेन्द्रियों के विषय व्यापार से रहित हो जाते हैं और मन-वचन-कायरूप तीन गुप्ति से सहित हो जाते हैं । तथा शास्त्र पढ़ने और उसके अर्थ के चिन्तन में तल्लीन होने से एकाग्रचित्त हो जाते हैं । इन दो गाथाओं के द्वारा स्वाध्याय का माहात्म्य दिखलाया है। तप के विधान का क्रम बतलाते हैं गाथार्थ-मोक्षमहल के भूषणरूप तप के करण चार प्रकार के हैं जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप क्रम से हैं ॥४११॥ प्राचारवत्ति यह जो बारह प्रकार तप है वह सिद्धिप्रासाद का भूषण है, मोक्षमहल का कर्णफूल है अर्थात् मोक्षमहल का मंडनरूप है। अथवा मोक्षमहल में प्रवेश करने का साधन है । ऐसा यह तपश्चरण का अनुष्ठान चार प्रकार का है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों का आश्रय लेकर यह तप होता है। आहार और शरीर आदि को द्रव्य कहते हैं । अनूप-जहाँ पानी बहुत पाया जाता है, मरु-जहाँ पानी बहुत कम है, जांगल-जलरहित प्रदेश, ये स्थान स्निग्ध रूक्ष हैं एवं वात, पित्त या कफ को बढ़ानेवाले हैं। ये सब क्षेत्र कहलाते हैं। शीत, ऊष्ण, वर्षा आदि रूप काल होता है, और चित्त के संक्लेश आदि रूप परिणाम को “यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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