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________________ ३२१ पंचाचाराधिकार:] मिय्यात्वं । स्त्रीपुंनपुंसकवेदास्त्रयः। रागा हास्यादयः षट् दोषा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साः चत्वारस्तथा कषाया कोधमानमायालोभाः। एते चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः । एतेषां परित्यागोऽभ्यन्तरो व्युत्सर्ग इति ॥४०७॥ बाह्यव्युत्सर्गभेद प्रतिपादनार्थमाह--- खेत्तं वत्थु धणधण्णगदं दुपदचदुप्पदगदं च । जाणसयणासणाणि य कुप्पे भंडेसु दस होति ॥४०८॥ क्षेत्र सस्यादिनिष्पत्तिस्थानं । वास्तु गृहप्रासादादिकं । धनगतं सुवर्णरूप्यद्रव्यादि । धान्यगतं शालियवगोधूमादिकं द्विपदा दासीदासादयः । चतुष्पदगतं गोमहिष्याजादिगतं । यानं शयनमासनं । कूप्यं कार्पासादिकं । भाण्डं हिंगुमरीचादिकं । एवं वाह्यपरिग्रहो दशप्रकारस्तस्य त्यागो बाह्यो व्युत्सर्ग इति ॥४०८॥ द्वादशविधस्यापि तपसः स्वाध्यायोऽधिक इत्याह बारसविह्मिवि तवे सन्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ट। णवि अस्थि णवि य होही सज्झायसमं तवोकम्मं ॥४०६॥ द्वादशविधस्यापि तपसः सबाह्याभ्यन्तरे कुशलदृष्टे सर्वज्ञगणधरादिप्रतिपादिते नाप्यस्ति नापि च आचारवृत्ति-मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं। इनका परित्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है। बाह्य व्युत्सर्ग भेद का प्रतिपादन करते हैं--- गाथार्थ-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन-आसन, कुप्य और भांड ये दश परिग्रह होते हैं ।।४०८।। प्राचारवृत्ति-धान्य आदि की उत्पत्ति के स्थान को क्षेत्र-खेत कहते हैं । घर, महल आदि वास्तु हैं। सोना, चाँदी आदि द्रव्य धन हैं। शालि, जौ, गेहूं आदि धान्य हैं। दासी, दास आदि द्विपद हैं । गाय, भैंस, बकरी आदि चतुष्पद हैं। वाहन आदि यान हैं। पलंग, सिंहासन आदि शयन-आसन हैं। कपास आदि कुप्य कहलाते हैं और हींग, मिर्च आदि को भांड कहते हैं । ये बाह्य परिग्रह दश प्रकार के हैं, इनका त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है। बारह प्रकार के तप में भी स्वाध्याय सबसे श्रेष्ठ है ऐसा निरूपण करते हैं । गाथार्थ-कुशल महापुरुष के द्वारा देखे गये अभ्यन्तर और बाह्य ऐसे बारह प्रकार के भी तप में स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप न है और न ही होगा ॥४०६।। प्राचारवृत्ति-सर्वज्ञ देव और गणधर आदि के द्वारा प्रतिपादित इन बाह्य और फलटन से प्रकाशित मूलाचार में यह गाथा बदली हुई है कोहो मानो माया लोहो रागो तहेव बोसोय। मिच्छत्तवेदरतिअरवि हाससोगभयदुगुका य॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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