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________________ ३१८] [मूलाधारे संवरो महाव्रतादिकं । निर्जरा कर्मसातनं । धर्मोऽपि दश प्रकारः क्षमादिलक्षणः। बोधि च सम्यक्त्वसहिता भावना एता द्वादशानुप्रेक्षाश्चिन्तय । तत् एतच्चतुर्विधं धर्मध्यानं नामेति ॥४०३॥ शुक्लध्यानस्य स्वरूपं भेदांश्च विवेचयन्नाह उवसंतो दु पुत्त झायदि झाणं विदक्कवीचारं। खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं ॥४०४॥ उपशान्तकषायस्तु पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं । द्रव्याण्यनेकमेदभिन्नानि त्रिभिर्योगैर्यतो ध्यायति ततः पथक्त्वमित्यच्यते । वितर्कः श्रतं यस्माद्वितण श्रतेन सह वर्तते यस्माच्च नवदशचतुर्दशपूर्वधरैरारभ्यते तस्मात्सवितर्क तत् । विचारोर्थव्यंजनयोगः (ग) संक्रमणः । एकमर्थ त्यक्त्वार्थान्तरं ध्यायति मनसा संचित्य वचसा प्रवर्तते कायेन प्रवर्तते एवं परंपरेण संक्रमो योगानां द्रव्याणां व्यंजनानां च स्थूलपर्यायाणामर्थानां सूक्ष्मपर्यायाणां वचनगोचरातीतानां संक्रमः सवीचारं ध्यानमिति ।अस्य त्रिप्रकारस्य ध्यानस्योपशान्तकषायः स्वामी। जाते हैं। निर्जरा-कर्मों का झड़ना निर्जरा है। धर्म--उत्तम क्षमा आदि लक्षणरूप धर्म दशप्रकार का है। बोधि-सम्यक्त्व सहित भावना ही बोधि है। इस प्रकार से इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए। शुक्ल ध्यान का स्वरूप और उसके भेदों को कहते हैं गाथार्थ-उपशान्तकषाय मुनि पृथक्त्व वितर्कवीचार नामक शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं । क्षीणकषाय मुनि एकत्व वितर्क अवीचार नामक ध्यान करते हैं ॥४०४॥ प्राचारवृत्ति-उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान को ध्याते हैं। जीवादि द्रव्य अनेक भेदों से सहित हैं, मुनि इनको मन, वचन और काय इन तीनों योगों के द्वारा ध्याते हैं। इसलिए इस ध्यान का पृथक्त्व यह सार्थक नाम है। श्रुत को वितर्क कहते हैं। वितर्क-श्रुत के साथ रहता है अर्थात् नवपूर्वधारी, दशपूर्वधारी या चतुर्दश पूर्वधरों के द्वारा प्रारम्भ किया जाता है इसलिए वह वितर्क कहलाता है। अर्थ, व्यंजन और योगों के संक्रमण का नाम वीचार है अर्थात् जो एक अर्थ-पदार्थ को छोड़कर भिन्न अर्थ का ध्यान करता है, मन से चिन्तवन करके वचन से करता है, पुनः काययोग से ध्याता है। इस तरह परम्परा से योगों का संक्रमण होता है। अर्थात् द्रव्यों का संक्रमण होता है और व्यंजन अर्थात् पर्यायों का संक्रमण होता है। पर्यायों में स्थूल पर्यायें व्यंजन पर्याय हैं और जो वचन के अगोचर सूक्ष्म पर्याय हैं वे अर्थ पर्यायें कहलाती हैं। इनका संक्रमण इस ध्यान में होता है इसलिए यह ध्यान वीचार सहित है । अतः इसका सार्थक नाम पृथक्त्ववितर्कवीचार है। इस ध्यान में तीन प्रकार हो जाते हैं अर्थात् पृथक्त्व-नाना भेदरूप द्रव्य, वितर्क-श्रुत और वीचार-अर्थ व्यंजन, योग का संक्रमण इन तीनों की अपेक्षा से यह ध्यान तीन प्रकार रूप है । इस ध्यान के स्वामी उपशान्तकषायी महामुनि हैं। क्षीणकषायगणस्थान वाले मनि एकत्व वितर्क अवीचार ध्यान को ध्याते हैं। वे एक द्रव्य को अथवा एक अर्थपर्याय को या एक व्यंजन पर्याय को किसी एक योग के द्वारा ध्याते हैं, अतः यह ध्यान एकत्व कहलाता है। इसमें वितर्क-श्रुत पूर्वकथित ही है अर्थात् नव, दश या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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