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________________ [३१७ पंचाचाराधिकारः] ऊर्ध्वलोकं सपर्ययं सभेदं ससंस्थानं व्यस्रचतुरस्रवृतदीर्घायतमृदंगसंस्थानं पटलेन्द्रकश्रेणीबद्धप्रकीर्णकविमानभेदभिन्न विचिनोति ध्यायति । तथाधोलोकं सपर्यय ससंस्थानं वेवासनाद्याकृति व्यत्रचतुरस्रवृत्तदीर्घायतादिसंस्थानभेदभिन्नं सप्तपथिवीन्द्रकश्रेणिविश्रेणिवद्धप्रकीर्णकप्रस्तरस्वरूपेण स्थितं शीतोष्णनारकसंहितं महावेदनारूपं च विचिनोति । तथा तिर्यग्लोकं सपर्ययं सभेदं ससंस्थानं झल्लर्याकारं मेरुकुलपर्वतादि ग्रामनगरपत्तन भेदभिन्नं पूर्वविदेहापरविदेहभरत रावतभोगभूमिद्वीपसमुद्रवननदीवेदिकायतनकूटादिभेदभिन्नं दीर्घह्रस्ववृत्ताय तत्र्यसचतुरस्रसंस्थानसहितं विचिनोति ध्यायतीति सम्बन्धः । अत्रैवानुगता अनुप्रेक्षा द्वादशानुप्रेक्षा विचि नोति ॥४०२।। कास्ता अनुप्रेक्षा इति नामानीति दर्शयन्नाह अद्ध वमसरणमेगत्तमण्ण संसारलीगमसुचितं । आसवसंवरणिज्जर धम्म बोधि च चिंतिज्जो ॥४०३॥ अध्र वनित्यता। अशरणमनाश्रयः । एकत्वमेकोऽहं । अन्यत्वं शरीरादन्योऽहं । संसारश्चतुर्गतिसंक्रमणं । लोक ऊधिोमध्यवेत्रासनझल्लरीमृदंगरूपश्चतुर्दशरज्ज्वायतः। अशुचित्वं । आस्रवः कर्मास्रवः । प्राचारवृत्ति-ऊर्ध्वलोक पर्याय सहित अर्थात् भेदों सहित तथा आकार सहितत्रिकोण, चतुष्कोण, गोल, दीर्व, आयत और मृदंग के आकारवाला है। इसमें पटलों में इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों से अनेक भेद हैं। इसका मुनि ध्यान करते हैं। अधोलोक भी भेद सहित और वेत्रासन आदि आकार सहित है। त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल, दीर्घ आदि आकार इसमें भी घटित होते हैं। इसमे सात पृथिवियाँ हैं। इन्द्रक, श्रेणी, विश्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक प्रस्तार हैं। कुछ नरकविल शीत हैं और कुछ उष्ण हैं । ये महावेदनारूप हैं इत्यादि का ध्यान करना। उसी प्रकार से तिर्यग्लोक भी नाना भेदों सहित और अनेक आकृतिवाला है, झल्लरी के समान है, मेरु पर्वत, कुलपर्वत आदि तथा ग्राम नगर पत्तन आदि से भेद सहित है। पूर्वविदेह, अपरविदेह, भरत, ऐरावत, भोगभूमि, द्वीप, समुद्र, वन, नदी, वेदिका, आयतन और कुटादि से युक्त है। दीर्घ, ह्रस्व, गोल, आयत, त्रिकोण, चतुष्कोण आकारों से सहित है। मुनि इसका भी ध्यान करते हैं। अर्थात् मुनि तीनों लोक सम्बन्धी जो कुछ आकार आदि का चिन्तवन करते हैं वह सब संस्थानविचय धर्मध्यान है । और इन्हीं के अन्तर्गत द्वादश अनुप्रेक्षाओं का भी चिन्तवन करते हैं। उन अनुप्रेक्षाओं के नाम बताते हैं गाथार्थ-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक. अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, और बोधि इनका चिन्तवन करना चाहिए ॥४०३॥ प्राचारवृत्ति-अध्रुव-सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। अशरण-कोई आश्रयभूत नहीं है। एकत्व-मैं अकेला हूँ। अन्यत्व--मैं शरीर से भिन्न हूँ। संसार-चतुर्गति में संसरण करना- भ्रमण करना ही संसार है । लोक-यह ऊर्व, अधः और मध्यलोक की अपेक्षा वेत्रासन, मल्लरी और मृदंग के आकार का है और चौदह राजू ऊँचा है। अशुचि-शरीर अत्यन्त अपवित्र है। बास्रव-कर्मों का आना आस्रव है। संवर-महाव्रत आदि से आते हुए कर्म रुक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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