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[माचारे
एकभवगतमनेकभवगतं च जीवानां पुष्यकर्मफलं पापकर्मफलं च विचिनोति । उदयं स्थितिक्षयेन गलनं विचिनोति ये कर्मस्कन्धा उत्कर्षापकर्षादिप्रयोगेण स्थितिक्षयं प्राप्यात्मनः फलं ददते तेषां कर्मस्कन्धानामुदय इति संज्ञा तं ध्यायति । तथा चोदीरणमपक्वपाचनं । ये कर्मस्कन्धाः सत्सु स्थित्यनुभागेषु अवस्थिताः सन्त आकृप्याकाले फलदाः क्रियन्ते तेषां कर्मस्कन्धानामुदीरणमिति संज्ञा तद् ध्यायति । संक्रमणं परप्रकृतिस्वरूपेण गमनं विचिनोति । तथा बन्धं जीवकर्मप्रदेशान्योन्यसंश्लेषं ध्यायति । मोक्षं जीवकर्मप्रदेश विश्लेषमनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपं विचिनोतीति सम्बन्धः । तथा शुभ प्रकृतीनां गुडखण्डशर्करामृतस्वरूपेणानुभागचिन्तनम् अशुभप्रकृतीनां निम्बकांजीर विषहालाहल स्वरूपेणानुभागचिन्तनम् तथा घातिकर्मणां लतादार्वस्थिशिलासमानानुचितनं । नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगति प्रापककर्मफलचिन्तनं इत्येवमादिचिन्तनं विपाकविचयधर्म्यंध्यानं नामेति ॥ ४०१ ॥
संस्थानविचयस्वरूपं विवृण्वन्नाह-
उड्ढमहति रियलोए विचिणादि सपज्जए ससठाणे । एत्थेव प्रणुगदाश्रो श्रणुपेक्खाश्रो य विचिणादि ॥ ४०२ ॥
कर्मों के उदय, उदीरणा, बन्ध और मोक्ष को जो ध्याता है उसके विपाकविचय धर्मध्यान होता है ॥ ४०१ ।।
श्राचारवृत्ति-मुनि विपाकविचय धर्म्यध्यान में जीवों के एक भव में होनेवाले या अनेक भव में होनेवाले पुण्यकर्म के और पापकर्म के फल का चिन्तन करते हैं । कर्मों के उदय का विचार करते हैं । स्थिति के क्षय से गलन होना उदय है अर्थात् जो कर्मस्कन्ध उत्कर्षण या अपकर्षण आदि प्रयोग द्वारा स्थिति क्षय को प्राप्त करके आत्मा को फल देते हैं उन कर्मस्कन्धों की उदय यह संज्ञा है । वे जीवों के कर्मोदय का विचार करते हैं । अपक्वपाचन को उदीरणा कहते हैं अर्थात् जो कर्मस्कन्ध स्थिति और अनुभाग के अवशेष रहते हुए विद्यमान हैं उनको खींच करके जो अकाल में ही उन्हें फल देनेवाला कर लेना है सो उदीरणा है अर्थात् प्रयोग के बल से अकाल में ही कर्मों को उदयावली में ले आना उदीरणा है । इसका ध्यान करते हैं । किसी प्रकृति का पर- प्रकृतिरूप से होना संक्रमण है। जीव केऔर कर्म के प्रदेशों कापरस्परमें संबंध होना बन्ध है । जीव और कर्म के प्रदेशों का पृथक्करण होकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य स्वरूप को प्राप्त हो जानामोक्ष है। इस संक्रमण का बंध और मोक्ष का चिन्तवन करते है । उसी प्रकार से शुभ प्रकृतियों के गुड, खांड, और शर्करा अमृत रूप अनुभाग का चिन्तवन करना तथा अशुभ प्रकृतियों का नीम, कांजीर, विष और हालाहलरूप अनुभाग का विचार करना तथा घातिकर्मों का लता, दारू, हड्डी और शिला के समान अनुभाग है ऐसा सोचना नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति को प्राप्त करानेवाले ऐसे कर्मों के फल का चिन्तन करना इत्यादि प्रकार से जो भी कर्मसम्बन्धी चिन्तन करना है । यह सब विपाकविचय नाम का धर्म्यध्यान है ।
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संस्थानविय का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ - भेदसहित और आकार सहित ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग्लोक का ध्यान करते हैं और इसी से सम्बन्धित द्वादश अनुप्रेक्षा का भी विचार करते हैं ॥ ४०२ ॥
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