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________________ [३१६ पंचाचाराधिकारः] तथा क्षीणकषायो ध्यायत्येकत्वं वितर्कमवीचारं । एक द्रव्यमेकार्थपर्यायमेकं व्यंजनपर्यायं च योगन केन ध्यायति तद्ध्यानमेकत्वं, वितर्कः श्रुतं पूर्वोक्तमेव, अवीचारं अर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिरहितं । अस्य त्रिप्रकारस्यकत्ववितर्कवीचारभेदभिन्नस्य क्षीणकषाय: स्वामी ॥४०४॥ तृतीयचतुर्थशुक्लध्यानस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह सहमकिरियं सजोगी झायदि झाणं च तदियसुक्कंतु। जं केवली अजोगी झायदि झाणं समुच्छिण्णं ॥४०५॥ सूक्ष्मक्रियामवितर्कमवीचारं श्रुतावष्टम्भरहितमर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिवियुक्तं सूक्ष्मकायक्रियाव्यवस्थितं तृतीयं शुक्लं सयोगी ध्यायति ध्यानमिति । यत्कंवल्ययोगी ध्यायति ध्यानं तत्समुच्छिन्नमवितर्कमवि PITH मामा इसकी चतुर्दश पूर्वो के वेत्ता मुनि ही ध्याते हैं। अर्थ, व्यंजन और योगों की संक्रांति से रहित होने से यह ध्यान अवीचार है। इसमें भी एकत्व, वितर्क और अवीचार ये तीन प्रकार होते हैं। इस तीन प्रकाररूप एकत्व, वितर्क, अवीचार ध्यान को करनेवाले क्षीणकषाय ही इसके स्वामी हैं। विशेषार्थ-यहाँ पर उपशान्तकषायवाले के प्रथम शुक्लध्यान और क्षीणकषायवाले के द्वितीय शुक्लध्यान माना है । अमृतचन्द्रसूरि ने भी 'तत्त्वार्थसार' में कहा है 'द्रव्याण्यनेकभेदानि योगायति यत्रिभिः । शांतमोहस्ततो ह्यतत्पृथक्त्वमिति कीतितम् ॥४॥ द्रव्यमेकं तथैकेन योगेनान्यतरेण च । ध्यायति क्षीणमोहो यत्तदेकत्वमिदं भवेत् ॥४८॥ अभिप्राय यही है कि उपशान्तमोह मुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं और क्षीणमोह मुनि एकत्ववितर्कवीचार को ध्याते हैं। तृतीय और चतुर्थ शुक्लध्यान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं गाथार्थ सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शुक्लध्यान सयोगी ध्याते हैं । जो अयोगी केवली ध्याते हैं वह समुच्छिन्न ध्यान है ॥४०॥ प्राचारवृत्ति-जो सूक्ष्मकाय क्रिया में व्यवस्थित है अर्थात् जिनमें काययोग की क्रिया भी सूक्ष्म हो चुकी है वह सूक्ष्मक्रिया ध्यान है । यह अवितर्क और अविचार है अर्थात् श्रुत के अवलम्बन से रहित है, अतः अवितर्क है और इसमें अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण नहीं है अतः यह अविचार है। ऐसे इस सूक्ष्म क्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान को सयोग केवली ध्याते हैं। जिस ध्यान को अयोग केवली ध्याते हैं वह समुच्छिन्न है। वह अवितर्क, अविचार, अनिवृत्तिनिरुद्ध योग, अनुत्तर, शुक्ल और अविचल है, मणिशिखा के समान है। अर्थात् इस समुच्छिन्न ध्यान में श्रुत का अवलम्बन नहीं है अतः अवितर्क है। अर्थ व्यंजन योग की संक्रांति भी नहीं है अतः अविचार है । सम्पूर्ण योगों का-काययोग का भी निरोध हो जाने से यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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