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________________ ३००] [भूलाबारे वन्दना। पच्चूगच्छणमेत्त-आगच्छतः प्रतिगमनमभिमुखयानं । प्रस्थितस्य प्रयाणके व्यवस्थितस्यानुसाधनं चानुव्रजनं च साधूनामादरः कार्यः । तथा तेषामेव क्रियाकर्म कर्तव्यम् । तथा तेषामेव कृताञ्जलिपुटेन नमनं कर्तव्यं । तथा साधोरागतः प्रत्यभिमुखगमनं कर्तव्यं तथा तस्यैव प्रस्थितस्यानुव्रजनं कर्तव्यमिति ॥३७३।। तथा णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च पासणं सयणं । पासणदाणं उवगरणदाण प्रोगासदाणं च ॥३७४|| देवगुरुभ्यः पुरतो नीचं स्थानं वामपार्वे स्थानं । नीचं च गमनं गुरोर्वामपार्वे पृष्ठतो वा गन्तव्यं । नीचं च न्यग्भूतं चासनं पीठादिवर्जनं । गुरोरासनस्य पीठादिकस्य दानं निवेदनं । उपकरणस्य पुस्तिकाकुंडिकापिच्छिकादिकस्य प्रासुकस्यान्विष्य दानं निवेदनं । अथवा नीचं स्थानं करचरणसंकुचितवृत्तिर्गुरोः सधर्मणोऽन्यस्य वा व्याधितस्येति ॥३७४॥ तथा पडिरूवकायसंफासणदा य पडिरूपकालकिरिया य। पेसणकरणं संथरकरणं उवकरण पडिलिहणं ॥३७५॥ प्रतिरूपं शरीरबलयोग्यं कायस्य शरीरस्य संस्पर्शनं मर्दनमभ्यंगनं वा। प्रतिरूपकालक्रिया चोष्ण. करते हुए कृति कर्म करना चाहिए तथा उन्हें अंजलि जोड़कर नमस्कार करना चाहिए । साधुओं के आते समय सन्मुख जाकर स्वागत करना चाहिए और उनके प्रस्थान करने पर कुछ दूर पहुँचाने के लिए उनके पीछे-पीछे जाना चाहिए। गाथार्थ-गुरुओं से नीचे खड़े होना, नीचे अर्थात् पीछे चलना, नीचे बैठना, नीचे स्थान में सोना, गुरु को आसन देना, उपकरण देना और ठहरने के लिए स्थान देना यह सब कायिक विनय है ॥३७४॥ प्राचारवृत्ति-देव और गुरु के सामने नीचे खड़े होना (बिनय से एक तरफ खड़े होना) गुरु के साथ चलते समय उनके बायें चलना या उनके पीछे चलना. गरु के नीचे आस अथवा पीठ पाटे आदि आसन को छोड़ देना । गुरु को आसन आदि देना, उनके लिए आसन देकर उन्हें विराजने के लिए निवेदन करना। उन्हें पुस्तक, कमण्डलु, पिच्छिका आदि उपकरण देना, वसतिका या पर्वत की गुफा आदि प्रासुक स्थान अन्वेषण करके गुरु को उसमें ठहरने के लिए निवेदन करना । अथवा 'नीच स्थान' का अर्थ यह है कि गुरु, सहधर्मी मुनि अथवा अन्य कोई व्याधि ग्रसित मुनि के प्रति हाथ-पैर संकुचित करके बैठना।तात्पर्ययही है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में विनम्रता रखना। उसी प्रकार से गाथार्थ-गुरु के अनुरूप उनके अंग का मर्दनादि करना, उनके अनुरूप और काल के अनुरूप क्रिया करना, आदेश पालन करना, उनके संस्तर लगाना तथा उपकरणों का प्रतिलेखन करना ।।३७५॥ आचारवृत्ति-गुरु के शरीर बल के योग्य शरीर का मर्दन करना अथवा उनके शरीर में तैल मालिश करना, उष्ण काल में शीत क्रिया, शीतकाल में उप्णक्रिया करना, और वर्षाकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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