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________________ पंचाचाराधिकारः [૨ee काइयवाइयमाणसि'ो त्ति अतिविहो दु पंचमो विणो। सो पुण सव्वो दुविहो पच्चक्खो तह परोक्खो य ॥३७२॥ काये भवः कायिकः । वाचि भवो वाचिकः । मनसि भवो मानसिकः ।त्रिविधस्त्रिप्रकारस्तु पंचमो विनयः । स्वर्गमोक्षादीन विशेषेण नयतीति विनयः । कायाश्रयो वागाश्रयो मानसाश्रयश्चेति । स पुनः सर्वोऽपि कायिको वाचिको मानसिकश्च द्विविधो द्विप्रकार: प्रत्यक्षश्चैव परोक्षश्च । गुरोः प्रत्यक्षश्चक्षुरादिविषयः । चक्षरादिविषयादतिक्रान्तः परोक्ष इति ॥३७२।। कायिकविनयस्वरूपं दर्शयन्नाह अभदाणं किदिनम्मं णवणं अंजलीय मुंडाणं । पच्चूगच्छणमेत्त पछिदस्तणुसाहणं चेव ॥३७३॥ अभ्युत्थानमादरेणासनादुत्थानं । क्रियाकर्म सिद्धभक्तिश्रुतभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गादिकरणं । नमन शिरसा प्रणामः । अञ्जलिना करकुडलेनाञ्जलिकरणं वा मुण्डानामृषीणां । अथवा मुण्डा सामान्य गाथार्थ-कायिक, वाचिक और मानसिक इस प्रकार पाँचवाँ औपचारिक विनय तीन भेद रूप है । पुनः वह तीन भेद रूप विनय प्रत्यक्ष तथा परोक्ष की अपेक्षा से दो प्रकार का है। ॥३७२॥ प्राचारवृत्ति—काय से होनेवाला कायिक है, वचन से होने वाला वाचिक और मन से होने वाला मानसिक विनय है । जो स्वर्ग मोक्षादि में विशेष रूप से ले जाता है वह विनय है। इस तरह औपचारिक नामक पाँचवाँ विनय तीन प्रकार का है। अर्थात् काय के आश्रित, वचन के आश्रित और मन के आश्रित से यह विनय तीन भेद रूप है। वह तीनों प्रकार का विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार है अर्थात् प्रत्यक्ष विनय के भी तीन भेद हैं और परोक्ष के भी तीन भेद हैं। जब गुरु प्रत्यक्ष में हैं, चक्षु आदि इन्द्रियों के गोचर हैं तब उनका विनय प्रत्यक्षविनय है तथा जब गुरु चक्षु आदि से परे दूर हैं तब उनकी जो विनय की जाती है वह परोक्षविनय है। कायिक विनय का स्वरूप दिखलाते हैं गाथार्थ केशलोच से मुण्डित हुए अतः जो मुण्डित कहलाते हैं ऐसे मुनियों के लिए उठकर खड़े होना, भक्तिपाठ पूर्वक वन्दना करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना, आते हुए के सामने जाना और प्रस्थान करते हुए के पीछे-पीछे चलना ॥३७३॥ प्राचारवृत्ति-मुण्ड अर्थात् ऋषियों को सामने देखकर आदरपूर्वक आसन से उठकर खड़े हो जाना, क्रियाकर्म-सिद्धभक्ति, श्रुतभरित, गुरुभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि करके वन्दना करना, अंजलि जोड़कर शिर झुकाकर नमस्कार करना नमन है। यहाँ मुण्ड का अर्थ ऋषि है अथवा 'मुण्ड' का अर्थ सामान्य वन्दना है अर्थात् भक्तिपाठ के बिना नमस्कार करना मुण्ड-वन्दना है। जो साधु सामने आ रहे हैं उनके सम्मुख जाना, प्रस्थान करने वाले के पीछेपीछे चलना। तात्पर्य यह है कि साधुओं का आदर करना चाहिए। उनके प्रति भक्तिपाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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