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________________ पंचाचाराधिकारः] काले शीतक्रिया शीतकाले उष्णक्रिया वर्षाकाले तद्योग्यक्रिया। प्रेष्यकरण-आदेशकरणं । संस्तरकरणं चट्रिका. दिप्रस्तरणं । उपकरणानां पुस्तिकाकुण्डिकादीनां प्रतिलेखनं सम्यग्निरूपणम् ॥३७५॥ इच्चेवमादिश्रो जो उवयारो कीरदे सरोरेण। एसो काइयविणओ जहारिहं साहुवग्गस्स ॥३७६॥ इत्येवमादिरूपकारो गुरोरन्यस्य वा साधुवर्गस्य यः शरीरेण क्रियते यथायोग्यं स एष कायिको विनयः कायाश्रितत्वादिति ॥३७६।। वाचिकविनयस्वरूपं विवृण्वन्नाह पूयावयणं हिंदभासणं मिदभासणं च मधुरं च । सुत्ताणुवीचिवयण अणिठ्ठरमकक्कसं वयणं ॥३७७॥ पूजावचन बहुवचनोच्चारणं यूयं भट्टारका इत्येवमादि । हितस्य पथ्यस्य भाषणं इहलोकपरलोकधर्मकारणं वचनं । मितस्य परिमितस्य भाषणं चाल्पाक्षरबह्वर्थं । मधुरं च मनोहरं श्रुतिसुखदं। सूत्रानुवीचिवचनमागमदृष्टया भाषणं यथा पापं न भवति । अनिष्ठुरं दग्धमृतप्रलीनेत्यादिशब्दै रहितं । अकर्कशं वचनं च वर्जयित्वा वाच्यमिति ॥३७७॥ में उस ऋतु के योग्य क्रिया करना । अर्थात् गुरु की सेवा आदि ऋतु के अनुकूल और उनकी प्रकृति के अनुकूल करना । उनके आदेश का पालन करना; उनके लिए संस्तर अर्थात् चटाई घास, पाटा आदि लगाना, उनके पुस्तक कमण्डलु आदि उपकरणों को ठीक तरह से पिच्छिका से प्रतिलेखन करके उन्हें देना। गाथार्थ-साधु वर्ग का इसी प्रकार से और भी जो उपकार यथायोग्य अपने शरीर के द्वारा किया जाता है यह सब कायिक विनय है ।।३७६॥ ___ आधारवृत्ति—इसी प्रकार से अन्य और भी जो उपकार गुरु या साधु वर्ग का शरीर के द्वारा योग्यता के अनुसार किया जाता है वह सब कायिक विनय है; क्योंकि वह काय के आश्रित है। वाचिक विनय का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ पूजा के वचन, हित वचन, मितवचन और मधुर वचन, सूत्रों के अनुकूल वचन, अनिष्ठुर और कर्कशता रहित बचन बोलना वाचिक विनय है ॥३७७॥ प्राचारवृत्ति—'आप भट्टारक !' इत्यादि प्रकार बहुवचन का उच्चारण करमा पूजा वचंन हैं। हिस-पथ्य वचन बोलना अर्थात् इस लोक और परलोक के लिए धर्म के कारणभूत वचन, हितवचन हैं। मिस-परिमित बोलना जिसमें अल्प अक्षर हों किन्तु अर्थ बहुत हो मित वचन हैं । मधुर-मनोहर अर्थात् कानों को सुखदायी वचन मधुर वचन हैं। आगम के अनुकूल बोलना कि जिस प्रकार से पाप न हो सूत्रानुवीचि वचन हैं। तुम जलो मरो, प्रलय को प्राप्त हो जाओ इत्यादि शब्दों से रहित वचन अनिष्ठुर वचन हैं और कठोरता रहित वचन अकर्कश वचन हैं । अर्थात् उपर्युक्त प्रकार के वचन बोलना हो वाचिक विनय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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