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________________ पंचाचाराधिकारः] [२८५ ग्रहणं । कनकावल्यादीनां प्रपंचः टीका'राधनायां द्रष्टव्यो विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते। अनाहारोऽनशनं षष्ठाष्टमदशमद्वादशैर्मासार्धमासादिभिश्च यानि क्षमणानि कनकैकावल्यादीनि च यानि तपोविधानानि तानि सर्वाण्यनाहारो यावत्कृष्टेन षण्मासास्तत्सर्वं साकांक्षमनशनमिति ॥३४८॥ निराकांक्षस्यानशनस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह भत्तपइण्णा इंगिणि पाउवगमणाणि जाणि मरणाणि । अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकंखाणि ॥३४६॥ भक्तप्रत्याख्यानं द्वयाद्यष्टचत्वारिंशन्निर्यापकैः परिचर्यमाणस्यात्मपरोपकारसव्यपेक्षस्य यावज्जीवमाहारत्यागः । इङगणीमरणं नामात्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनमरणं नामात्मपरोपकारनिरपेक्षं। एतानि श्रीणि मरणानि । एवमादीन्यन्यान्यपि प्रत्याख्याता [ना] नि , निराकांक्षाणि यानि तानि सर्वाण्यनिराकांक्षमनशनं बोद्धव्यं ज्ञातव्यमिति ॥३५०॥ अवमौदर्यस्वरूपं निरूपयन्नाह विधान हैं। यहाँ आदि शब्द से मुरजबन्ध, विमानपंक्ति, सिंहनिष्क्रीड़ित आदि व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। इन कनकावली आदि व्रतों का विस्तृत कथन आराधना टीका में देखना चाहिए। विस्तार के भय से उनको यहाँ पर हम नहीं कहते हैं। तात्पर्य यह है कि आहार का त्याग करना अनशन है । वेला, तेला, चौला, पाँच उपवास, पन्द्रह दिन, एक महीने आदि के उपवास, कनकावली, एकावली आदि व्रतों का आचरण ये सब उपवास उत्कृष्ट से छह मास पर्यन्त तक होते हैं । ये सब साकांक्ष अनशन हैं। अब निराकांक्ष अनशन का स्वरूप निरूपित करते हैं गाथार्थ-भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन जो ये मरण हैं ऐसे और भी जो अनशन हैं वे निराकांक्ष जानना चाहिए ॥३४६॥ प्राचारवत्ति-दो से लेकर अड़तालीस पर्यन्त निर्यापकों के द्वारा जिनकी परिचर्या की जाती है, जो अपनी और पर के उपकार की अपेक्षा रखते हैं ऐसे मुनि का जो जीवन पर्यन्त आहार का त्याग है वह भक्त प्रत्याख्यान नाम का समाधिमरण है । जो अपने उपकार की अपेक्षा सहित है और पर के उपकार से निरपेक्ष है वह इंगिनीमरण है। जिस मरण में अपने और पर के उपकार को अपेक्षा नहीं है वह प्रायोपगमन मरण है। ये तीन प्रकार के मरण होते हैं। अर्थात् छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीवों के मरण का नाम पण्डितमरण है उसके ही ये तीनों भेद हैं। इसी प्रकार से और भी जो अन्य उपवास होते हैं वे सब निराकांक्ष अनशन कहलाते हैं। __ अब अवमौदर्य का स्वरूप कहते हैं १ संस्कृतहरिवंशपुराणे च द्रष्टव्यं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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