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________________ २८६] [मूलाचारे बत्तीसा किर कवला परिसस्स द होदि पयदि आहारो। एगकवलादिहि' तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं ॥३५०॥ द्वात्रिंशत्कवलाः पुरुषस्य प्रकृत्याहारो भवति । ततो द्वात्रिंशत्कवलेभ्य एककवलेनोनं द्वाभ्यां त्रिभिः, इत्येवं यावदेककवलः शेषः एकसिक्थो वा। किलशब्द आगमार्थसूचक: आगमे पठितमिति । एककवलादिभिनित्यस्याहारस्य ग्रहणं यत् सावमौदर्यवृत्तिः। सहस्रतंदुलमात्र: कवल आगमे पठितः द्वात्रिंशत्कवला: पुरुषस्य स्वाभाविक आहारस्तेभ्यो यन्यूनग्रहणं तदवमोदयं तप इति ॥३५१।। किमर्थमवमोदर्यवृत्तिरनुष्ठीयत इति पृष्टे उत्तरमाह धम्मावासयजोगे णाणादीए उवग्गहं कुणदि। ण य इंदियप्पदोसयरी उम्मोदरितवोवुत्ती॥३५१॥ धर्मे क्षमादिलक्षणे दशप्रकारे । आवश्यक क्रियासु समतादिषु षट्सु । योगेषु वृक्षमूलादिषु । ज्ञानादिके स्वाध्याये चारित्रे चोपग्रहमुपकारं करोतीत्यवमोदर्यतपोवृत्तिः। न चेन्द्रियप्रद्वेषकरी न चावमोदर्यवृत्येन्द्रियाणि प्रद्वेषं गच्छन्ति किन्तु वशे तिष्ठन्तीति। वह्वाशीधर्म नानुतिष्ठति । आवश्यकक्रिय च न सम्पूर्णाः गाथार्थ-पुरुष का निश्चित रूप से स्वभाव से बत्तीस कवल आहार होता है। उस आहार में से एक कवल आदि रूप से कम ग्रहण करना अवमौदर्य तप है ॥३५०॥ आचारवृत्ति-पुरुष का प्राकृतिक आहार बत्तीस कवल प्रमाण होता है। उन बत्तीस ग्रासों में से एक ग्रास कम करना, दो ग्रास कम करना, तीन ग्रास कम', इस प्रकार से जब तक एक ग्रास न हो जाय तब तक कम करते जाना अथवा एक सिक्थ-भात का कण मात्र रह जाय तब तक कम करते जाना यह अवमौदर्य तप है । गाथा में आया 'किल' शब्द आगमअर्थ का सूचक है अर्थात् आगम में ऐसा कहा गया है । एक ग्रास आदि से प्रारम्भ करके एक ग्रास कम तक जो आहार का ग्रहण करना है वह अवमौदर्य चर्या है । आगम में एक हजार चावल का एक कवल कहा गया है। अर्थात् बत्तीस ग्रास पुरुष का स्वाभाविक आहार है उससे जो न्यून है वह अवमौदर्य तप है। किसलिए अवमौदर्य तप का अनुष्ठान किया जाता है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं गाथार्थ-धर्म, आवश्यक क्रिया और योगों में तथा ज्ञानादिक में उपकार करता है, क्योंकि अवमौदर्य तप की वृत्ति इन्द्रियों से द्वेष करनेवाली नहीं है ॥३५१॥ आचारवत्ति-उत्तम क्षमा आदि लक्षणवाले दशप्रकार के धर्म में, समता वन्दना आदि छह आवश्यक क्रियाओं में, वृक्षमूल आदि योगों में, ज्ञानादिक-स्वाध्याय और चारित्र में यह अवमौदर्य तप उपकार करता है। इस तपश्चरण से इन्द्रियाँ प्रद्वेष को प्राप्त नहीं होती हैं किन्तु वश में रहती हैं। बहत भोजन करनेवाला धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता है। परिपर्ण आवश्यक क्रियाओं का पालन नहीं कर पाता है । आतापन, अभ्रावकाश और वृक्षमूल इन तीन काल १ क 'दितत्तो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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