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________________ पंचाचाराधिकारः]] [२८३ एककोऽपि च बाहयाभ्यन्तरश्चकैक: पोढा षड्प्रकार: यथाक्रम क्रममनुल्लंघ्य प्ररूपयामि कथयिष्यामीति ॥३४५॥ बाह्य षड्भेदं नामोद्देशेन निरूपयन्नाह___ अणसण अवमोदरियं रसपरिचायो य वुत्तिपरिसंखा। कायस्स वि परितावो विवित्तसयणासणं छ8॥३४६॥ अनशनं चतुविधाहारपरित्यागः । अवमौदर्यमतृप्तिभोजनं । रसानां परित्यागो रसपरित्यागः स्वाभिलषितस्निग्धमधुराम्लकटुकादिरसपरिहारः । वृत्तः परिसंख्या वृत्तिपरिसंख्या गृहदायकभाजनौदनकालादीनां परिसंख्यानपूर्वको ग्रहः । कायस्य शरीरस्य परितापः कर्मक्षयाय बुद्धिपूर्वकं शोषणं आतापनाभ्रावकाशवक्षमूलादिभिः । विविक्तशयनासनं स्रीपशुपण्ठकविजितं स्थानसेवनं षष्ठमिति ॥३४६॥ अनशनस्य भेदं स्वरूपं च प्रतिपादयन्नाह इत्तिरियं जावजीव दुविहं पुण अणसणं सुणेयां । इत्तिरियं साकंखं णिरावकखं हवे बिदियं ॥३४७॥ आभ्यन्तर । जो बाह्य जनों में प्रकट है वह बाह्य तप है और जो आभ्यन्तर जनों-अपने धार्मिक जनों में प्रकट है उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं। ये बाह्य-आभ्यन्तर दोनों ही तप छह-छह प्रकार के हैं। मैं इन सभी का क्रम से वर्णन करूंगा। वाह्य तप के छहों भेदों के नाम और उद्देश्य का निरूपण करते हैं गाथार्थ-अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शयनासन ये छह बाह्य तप हैं ॥३४६।। प्राचारवृत्ति-चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है । अतृप्ति भोजन अर्थात् पेटभर भोजन न करना अवमौदर्य है। रसों का परित्याग करना-अपने लिए इष्ट स्निग्ध, मधुर, अम्ल, कटुक आदि रसों का परिहार करना रसपरित्याग है । वृत्ति-आहार की चर्या में परिसंख्या--गणना अर्थात् नियम करना। गृह का, दातार का, बर्तनों का, भात आदि भोज्य वस्तु का या काल आदि का गणनापूर्वक नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान है अर्थात् आहार को निकलते समय दातारों के घर का या किसी दातार आदि का नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। काय अर्थात् शरीर को परिताप-क्लेश देना, आतापन, अभ्रावकाश और वृक्षमूल आदि के द्वारा कर्मक्षय के लिए बुद्धिपूर्वक शोषण करना कायक्लेश तप है । स्त्री, पशु और नपुंसक से वर्जित स्थान का सेवन करना विविक्तशयनासन तप है । ऐसे इन छह बाह्य तपों का नाम निर्देशपूर्वक संक्षिप्त लक्षण किया है। आगे प्रत्येक का लक्षण आचार्य स्वयं कर रहे हैं। अनशन का स्वरूप और उसके भेद बतलाते हुए कहते हैं गाथार्थ-काल की मर्यादा सहित और जीवनपर्यन्त के भेद से अनशन तप दो प्रकार जानना चाहिए। काल की मर्यादा सहित साकांक्ष है और दूसरा यावज्जीवन अनशन निराकांक्ष होता है ।।३४७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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