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________________ पंचाचाराधिकारः] [२७७ तम्हा तिविहेण तुमं णिच्चं मणवयणकायजोगेहिं। होहिसु समाहिदमई णिरंतरं झाण सज्झाए ॥३३५॥ तस्मात्त्रिविन कृतकारितानुमतस्त्वं साधो ! मनोवाक्काययोगर्भव सुसमाहितमतिः सम्यक्स्थापितबुद्धिः । निरन्तरमभीक्ष्णं ध्याने स्वाध्याये चेति ॥३३५।। समितिगुप्तिस्वरूपं संक्षेपयन्नाह एताप्रो अपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं । रक्खंति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदानो॥३३६॥ । एता अष्टप्रवचनमातृकाः पंचसमितयस्त्रिगुप्तयः प्रवचनमातरो मुनेनिदर्शनचारित्राणि रक्षन्ति पालयन्ति । कथं ? यथा माता जननी पुत्रं पालयति तथैषा: पालयन्तीति सम्बन्ध अत्रोकारस्य ह्रस्वत्वं प्राकृतबलाद् द्रष्टव्यं ॥३३६॥ अष्टप्रवचनमातृकाः प्रतिपाद्य भावनास्वरूपं प्रतिपादयन्नाह एसणणिक्खेवादाणिरियासमिदी तहा मणोगुत्ती। पालोयभोयणंपि य अहिंसाए भावणा पंच ॥३३७॥ अशनसमितिनिक्षेपादानसमितिरीर्यासमितिस्तथा मनोगुप्तिरालोक्यभोजनमपि चाहिंसाव्रतस्यैता गायार्थ-इसलिए तुम त्रिविध पूर्वक नित्य मन-वचन-काय योगों द्वारा सतत ध्यान और स्वाध्याय में एकाग्रमति होओ! ॥३३५॥ प्राचारवृत्ति-इसलिए हे साधु ! तुम मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से सम्यक्प्रकार से एकाग्रमना होओ। निरन्तर ध्यान में और स्वाध्याय में तत्पर होओ ! अब समिति और गुप्ति का स्वरूप संक्षिप्त करते हुए कहते हैं गाथार्थ-ये आठ प्रवचन-माताएँ, जैसे माता पुत्र की रक्षा करती है वैसे ही, सदा मुनि के दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करती हैं। ॥३३६॥ प्राचारवृत्ति-पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप ये आठ प्रवचन-माताएँ मुनि के ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सदा रक्षा करती हैं अर्थात् उनका पालन करती हैं। कैसे ? जैसे माता पुत्र का पालन करती है वैसे ही ये मुनि के रत्नत्रय का पालन करती हैं। इसीलिए इनका प्रवचनमातृका यह नाम सार्थक है। यहाँ पर गाथा में ओकार शब्द में ह्रस्वत्व प्राकृत व्याकरण के बल से समझना चाहिए। आठ प्रवचन-माताओं का स्वरूप बताकर अब भावनाओं के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्या समिति तथा मनोगुप्ति और आलोकित भोजन-अहिंसाव्रत की ये पाँच भावनाएँ हैं ॥३३७।। प्राचारवृत्ति-एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्यासमिति तथा मनोगुप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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