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________________ [मूलाचारे अलीकादिभ्यश्चासत्याभिप्रायेभ्यश्च वचसो या निवृत्तिः मौनं ध्यानाध्ययनचितनं च यत्तूष्णींभावेनासौ वा वाग्गुप्तिर्भवति ॥ ३३२ ॥ कायगुप्त्यर्थमाह— २७६] stafafरयाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरंगे गुत्ती । हिंसादिनियती वा सरीरगुत्ती हवदि एसा ॥ ३३३॥ कायक्रियानिवृत्तिः शरीरचेष्टाया अप्रवृत्तिः शरीरगुप्तिः कायोत्सर्गे वा कायगुप्तिः । हिंसादिभ्यो निवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिर्भवत्येषा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि गुप्यन्ते रक्ष्यन्ते यकाभिस्ता गुप्तयः । अथवा मिथ्यात्वासंयम कषायेभ्यो गोप्यते रक्ष्यते आत्मा यकाभिस्ता गुप्तय इति ॥ ३३३॥ दृष्टान्तद्वारेण तासां माहात्म्यमाह--- खेत्तस्स वर्ड णयरस्स खाइया अहव होंइ पायारो । तह पावस्स गिरोहो सानो गुत्तीउ साहुस्स ॥ ३३४॥ यथा क्षेत्रस्य शस्यस्य वृतिः रक्षा नगरस्य वा खातिकाथवा प्राकारो यथा गुप्तिस्तथा पापस्याशुभकर्मणो निरोधः संवृतिस्ता गुप्तयः साधोः संयतस्येति ॥ ३३४ ॥ यस्मादेवंगुणा गुप्तयः व्यापार को रोककर मोन धारण करना अथवा असत्य वचन नहीं बोलना, यह वचनगुप्ति का लक्षण है । अब काय गुप्ति का लक्षण कहते हैं गाथार्थ - काय की क्रिया का अभावरूप कायोत्सर्ग करना काय से सम्बन्धित गुप्ति है । अथवा हिंसादि कार्यों से निवृत्त होना कायगुप्ति होती है | ॥ ३३३॥ श्राचारवृत्ति - शरीर की चेष्टा की प्रवृत्ति नहीं होना अथवा कायोत्सर्ग करना कायगुप्ति है । अथवा हिंसा आदि से निवृत्ति होना शरीर गुप्ति है। जिसके द्वारा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र गोपित किये जाते हैं, रक्षित किये जाते हैं वे गुप्तियाँ हैं । अथवा जिनके द्वारा मिथ्यात्व असंयम और कषायों से आत्मा गोपित होती है, रक्षित होती है वे गुप्तियाँ हैं । अब दृष्टान्त के द्वारा उन गुप्तियों का माहात्म्य दिखलाते हैं जैसे क्षेत्र की बाड़, नगर की खाई अथवा परकोटा होता है उसी प्रकार से पाप का निरोध होने रूप से साधु की वे गुप्तियाँ हैं । ॥ ३३४॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति - जैसे खेत की रक्षा के लिए बाड़ है, और नगर की रक्षा के लिए खाई अथवा परकोटा है उसी प्रकार से जो अशुभ कर्म को रोकना है या संवृत होना है वही संयत की गुप्तियाँ कहलाती हैं । क्योंकि इन गुणोंवाली गुप्तियाँ हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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