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पंचाचाराधिकारः]
[२३१ पंचवर्णपुद्गलनिनयः । दुर्गन्धः पूतिगन्धः । सन्ध्या लोहितपीतवर्णाकारः । दुर्दिनः पतदुदकाभ्रसंयुक्तो दिवसः । चन्द्रयुद्धं, ग्रहयुद्धं, सूरयुद्धं राहुयुद्ध च । चन्द्रस्य ग्रहण भेदः संघट्टो वा, ग्रहस्यान्योन्यग्रहेण भेदा: संघट्टादिर्वा, सूर्यस्य ग्रहेण भेदादिः, राहोश्चन्द्रण सूर्येण वा संयोगो ग्रहणमिति । चशब्देन निर्घातादयो गृह्यन्त इति ॥२७४।।
कलहः क्रोधाद्याविष्टानां वचनप्रतिवचनर्जल्पः महोपद्रवरूपः । आदिशब्देन खङ्ग-कृपाणी-लकुटादिभिर्यद्धानि परिणयन्ते । धमकेतर्गगने धमाकाररेखाया दर्शनं । धरणीकम्पः पर्वतप्रासादादि भमेश्चलनं । चकारेण शोणितादिवर्षस्थ ग्रहणं । अभ्रगर्जनं मेघध्वनिः । चकारेण महावातादिवर्षस्य अभ्रगर्जन मेघध्वनिः । चकारेण महावाताग्निदाहादयः परिगह्यन्ते । इत्येवमाद्यन्येऽपि बहवः स्वाध्यायक वजिता: परिहरणीया दोषाः सर्वलोकानामुपद्रवहेतुत्वात् । एते कालशूद्धयां क्रियमाणायां दोषाः पठनोपाध्यायसंघराष्ट्रराजादिविघ्नकारिणो यत्नेन त्याज्या इति ॥२७५।।
कालशुद्धि विधाय द्रव्यक्षेत्रभावशुद्धयर्थमाह
रुहिरादिप्यमंसं दवे खेत्ते सदहत्थपरिमाणं । कोधादिसंकिलेसा भावविसोही पढणकाले ॥२७६।।
बर्फ के टुकड़ों का बरसना, इन्द्रधनुष----धनुष के आकार में पाँच वर्ण के पुद्गल समूह का दिखना, दुर्गन्ध आना, लाल-पीले आकार की संध्या का खिलना, जलवृष्टि करते मेघों से युक्त दिन का होना' अथवा मेघों से व्याप्त अन्धकारमय दिन का हो जाना। चन्द्रयुद्ध, ग्रहयुद्ध, सर्ययुद्ध,
और राहुयुद्ध का होना । चन्द्र का ग्रह के साथ भेद या संघट्ट होना, ग्रहों का परस्पर में ग्रहों के साथ भेद या संघट आदि होना, सूर्य का ग्रह के साथ भेद आदि का होना। राह का चन्द्र के साथ अथवा सूर्य के साथ संयोग होना ग्रहण कहलाता है । 'च' शब्द से निर्धात आदि ग्रहण किये जाते हैं।
__ कलह-क्रोध के आवेश में हुए जनों का वचन और प्रतिवचनों से, बोलने और उत्तर देने से जो जल्प होता है, जो कि महाउपद्रव रूप है, कलहनाम से प्रसिद्ध है। 'आदि' शब्द से तलवार, छुरो, लाठी आदि से जो युद्ध होता है वह भी यहाँ ग्रहण करना चाहिए। धूमकेतुआकाश में घूमाकार रेखा का दिखना। धरणीकम्प-पर्वत, महल आदि सहित पृथ्वी का कम्पायमान होना। 'च' शब्द से रुधिर आदि की वर्षा होना, मेघों का गर्जना । पुनः 'चकार' से आँधी, अग्निदाह आदि होना । इत्यादि प्रकार से और भी बहुत से दोष होते हैं जो कि स्वाध्याय के काल में वजित हैं क्योंकि ये सभी लोगों के लिए उपद्रव में कारण हैं। कालशुद्धि के करने में ये दोष पठन, उपाध्याय, संघ, राष्ट्र और राजा आदि के विनाश को करनेवाले हैं इसलिए इन्हें प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए।
कालशुद्धि को कहकर अब द्रव्य,क्षेत्र और भाव-शुद्धि को कहते हैं
गाथार्थ-रुधिर आदि का पीव शरीर में होना और क्षेत्र में सौ हाथ प्रमाण तक मांस आदि अपवित्र वस्तु का वर्जन द्रव्य-क्षेत्र शुद्धि है और पठनकाल में क्रोधादि संक्लेश का वर्जन भावविशुद्धि है। यहाँ वर्जन शब्द की अनुवृत्ति ग्रहण करके अर्थ किया गया है ॥२७६।। १. मेघच्छन्नेऽह्निदुर्दिनं, अमरकोशः।
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