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________________ २३०] [मूलाचारे अथ के ते दिग्दाहादय इति पृष्टे तानाह दिसदाह उक्कपडणं विज्जु चुडक्कासणिदधणुगं च । दुग्गंधसंझदुद्दिणचंदग्गहसूरराहुजुझं च ॥२७४॥ कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अम्भगज्जं च । इच्चेवमाइबहुया सज्झाए वज्जिदा दोसा ॥२७॥ दिशां दाह उत्पातेन दिशोऽग्निवर्णाः । उल्काया: पतनं गगनात् तारकाकारेण पुद्गलपिण्डस्य पतनं । विधुच्चैक्यचिक्यं, चडत्कारः वज्र मेघसंघटोद्भवं । अशनिः करकनिचयः । इन्द्रधनुः धनुषाकारेण अपररात्रि के समय वाचना नहीं है, क्योंकि उस समय क्षेत्रशुद्धि करने का उपाय नहीं है। अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी समस्त अंगश्रुत के धारक, आकाश स्थित चारणमुनि तथा मेरु व कुलाचलों के मध्य स्थित चारण ऋषियों के अपररात्रिक वाचना भी है, क्योंकि वे क्षेत्रशुद्धि से रहित हैं।" अभिप्राय यह हुआ कि पिछली रात्रि के स्वाध्याय में आजकल मुनि और आर्यिकाएँ सूत्रग्रन्थों का वाचना नामक स्वाध्याय न करें। एवं उनसे अतिरिक्त आराधनाग्रन्थ आदि का स्वाध्याय करके सूर्योदय के दो घड़ी (४८ मिनट) पहले स्वाध्याय समाप्त कर बाहर निकलकर प्रासुक प्रदेश में खड़े होकर चारों दिशाओं से तीन-तीन उच्छ्वास पूर्वक नव नव बार णमोकार मन्त्र का जाप्य करके दिशा-शुद्धि करें। पुनः पूर्वाह्न स्वाध्याय समाप्ति के बाद भी अपराह्न स्वाध्याय हेतु चारों दिशाओं में सात-सात बार महामन्त्र जपें । तथैव अपराह्न स्वाध्याय के अनन्तर भी पूर्वरात्रिक स्वाध्याय हेतु पाँच-पाँच महामन्त्र से दिशाशोधन कर लेवें। अपररात्रिक के लिए दिक्शोधन का विधान नहीं है, क्योंकि उस काल में ऋद्धिधारी महामुनि ही वाचना स्वाध्याय करते हैं और उनके लिए दिशा शुद्धि की आवश्यकता नहीं है। वे दिग्दाह आदि क्या हैं ? ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं गाथार्थ-दिशादाह, उल्कापात, विद्य त्पात, वज्र का भयंकर शब्द, इन्द्रधनुष, दुर्गन्ध उठना, संध्या समय, दुर्दिन, चन्द्रग्रहण, सूर्य और राहु का युद्ध, कलह आदि तथा धूमकेतु, भूकम्प और मेघगर्जन तथा इसीप्रकार के और भी दोष हैं जो कि स्वाध्याय में वर्जित हैं ॥२७४-२७५॥ प्राचारवृत्ति----दिशादाह--उत्पात से दिशाओं का अग्नि वर्ण हो जाना, उल्कापतनउल्का का गिरना अर्थात् आकाश से तारे के आकार के पुद्गल पिण्ड का गिरना, बिजलो चमकना, मेघ के संघट्ट से उत्पन्न हुए वज्र का चटचट शब्द होना या वज्रपात होना, ओलातक सात पाद प्रमाण छाया में हानि होती है और पुष्पमास से ज्येषमास तक वृद्धि होते-होते सप्तपाद प्रमाण छाया होती है। १. "पच्छिमरत्तियसमायं खमाविय वहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुश्वाहिमुहो छाइदूण गवगाहापरियट्ठणकालेण पुवदिसं सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लट्टिय एदेणेव कालेण जमवरुणसोमदिसासु सोहिवास छत्तीसगाहुच्चारणकालेण । अटुसदुस्सासकालेण वा कालसुद्धी समप्पवि।१०८। (धवला पुस्तक ६, पृ० २५३,२५४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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