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________________ पंचाचाराधिकारः ] [२२ स्थाय प्रतिदिशं पूर्वाह्नकाले स्वाध्यायविषये नव नव गाथापरिमाणं जाप्यं । तत्र यदि दिशादाहादीनि भवन्ति तदा कालशुद्धिर्न भवतीति वाचनाभंगो भवति । एषा कालशुद्धी रात्रिपश्चिमयाम 'स्वाध्याये कर्तव्या । एवमपरा स्वाध्यायनिमित्तं कायोत्सर्गमास्थाय प्रतिदिशं सप्तसप्तगाथापरिमाणं पाठ्यम् । अपराह्नस्वाध्याये तथा प्रदोषवाचनानिमित्तं पंच पंच गाथाप्रमाणं प्रतिदिशं घोष्यमिति । सर्वत्र दिशादाहाद्यभावे कालशुद्धिरिति ।।२७३ ।। * की शुद्धि के निमित्त प्रत्येक दिशा में कायोत्सर्ग से स्थित होकर नव-नव गाथा परिमाण जाप्य करना चाहिए। उसमें यदि दिशादाह आदि होते हैं तब कालशुद्धि नहीं होती है इसलिए वाचनाभंग होती है अर्थात् वाचना नामक स्वाध्याय नहीं किया जाता है । यह कालशुद्धि रात्रि के पश्चिम भाग में अस्वाध्याय काल में करना चाहिए। इसी अपराह्न स्वाध्याय के निमित्त कायोत्सर्ग में स्थित होकर प्रत्येक दिशा में सात-सात गाथा प्रमाण अर्थात् सात-सात बार णमोकार मन्त्र पढ़ना चाहिए। तथा अपराह्न स्वाध्याय के अनन्तर प्रदोषकाल की वाचना निमित्त पाँच-पाँच बार णमोकार मन्त्र प्रत्येक दिशा में बोलना चाहिए। सर्वत्र दिशादाह आदि के अभाव में कालशुद्धि होती है । विशेष --- सिद्धान्तग्रन्थ में भी कालशुद्धि के करने का विधान है । यथा - " पश्चिम रात्रि में स्वाध्याय समाप्त कर बाहर निकल कर प्रासुक भूमिप्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के उच्चारण काल से पूर्वदिशा को शुद्ध करके फिर प्रदक्षिणारूप से पलट कर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशा को शुद्ध कर लेने पर छत्तीस गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा एक सौ आठ उच्छ्वास काल से (एक बार णमोकार मन्त्र में तीन उच्छवास होने से चार दिशा सम्बन्धी नव नव के छत्तीस ९x४ = ३६ णमोकार के ३६×३ = १०८ एक सौ आठ उच्छवासों से ) कालशुद्धि समाप्त होती है । अपराह्न काल में भी इसी प्रकार कालशुद्धि करनी चाहिए । विशेष इतना है कि इस समय की कालशुद्धि एक एक दिशा में सात-सात गाथाओं के उच्चारण से होती है । यहाँ सब गाथाओं का प्रमाण अट्ठाईस अथवा उच्छ्वासों का प्रमाण चौरासी है । पश्चात् सूर्य के अस्त होने से पहले क्षेत्रशुद्ध सूर्यास्त हो जाने पर पूर्व के समान कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ काल बीस गाथाओं के उच्चारण प्रमाण अर्थात् साठ उच्छ्वास प्रमाण है । १ क यामे स्वाध्यायः कर्तव्यः । फलटन से प्रकाशित प्रति में यह गाथा अधिक है आसाढे सत्तपदे आउड्ढपदे य पुस्सेमासम्हि । सत गुलखयवुड्ढी मासे मासे तदिवराह ॥ अर्थात् आषाढ़ मास की पूर्णिमा में जब सूर्योदय के समय में सात पाद प्रमाण छाया होती है तब स्वाध्याय प्रारम्भ करना और सूर्यास्तकाल में सात पाद प्रमाण छाया होने पर अपराह्न स्वाध्याय समाप्त करना । पौष मास की पूर्णिमा में सूर्योदय के समय साढ़े तीन पाद प्रमाण छाया होने पर पूर्वाह्न स्वाध्याय करना और सूर्यास्त के समय साढ़े तीन पाद प्रमाण छाया होने पर अपराह्न स्वाध्याय समाप्त करना । तदनन्तर प्रतिमास छाया में हानि-वृद्धि होती है । अर्थात् आषाढ़ मास को प्रारम्भ कर मगसिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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