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श्रीमट्टरकाचार्य विरचित 'मूलाचार', जिसमें आचार्य वसुनन्दि द्वारा रचित टीका संस्कृत में ही है, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से वीर संवत् २४४६ में प्रकाशित हुआ है। इसका उत्तरार्ध भी मूल के साथ ही वीर संवत् २४४६ में उसी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है।
वीर संवत् २४७१ (सन् १९४४) में जब चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्ति सागर जी ने पं० जिनदास फडकुले को एक मूलाचार की प्रति हस्तलिखित दी थी, जिसमें कन्नड़ टीका थी, स्वयं पं० जिनदास जी ने उसी मूलाचार की प्रस्तावना में लिखा है-"इस मूलाचार का अभिप्राय दिखानेवाली एक कर्नाटक भाषा टीका हमको चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य शान्तिसागर महाराज ने दी थी। उसमें यह मूलाचार ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित है, ऐसा प्रति अध्याय की समाप्ति में लिखा है, तथा प्रारम्भ में एक श्लोक तथा गद्य भी दिया है। उस गद्य से भी यह ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत है ऐसा सिद्ध होता है।"..."यह कर्नाटक टीका श्री मेघचन्द्राचार्य ने की है। आगे अपनी प्रस्तावना में पण्डित जिनदास लिखते हैं कि "हमने कनडी टीका की पुस्तक सामने रखकर उसके अनुसार गाथा का अनुक्रम लिया है, तथा वसुनन्दि आचार्य की टीका का प्रायः भाषान्तर इस अनुवाद में आया है।
पण्डित जिनदास फडकुले द्वारा हिन्दी भाषा में अनूदित कुन्दकुन्दाचार्य विरचित यह मूलाचार ग्रन्थ चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री की प्रेरणा से ही आचार्य शान्तिसागर जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था, फलटण से वीर संवत् २४८४ में प्रकाशित हुआ है।
मैंने मूलाचार ग्रन्थ के अनुवाद के पूर्व भी श्री वट्टकेराचार्य कृत मूलाचार और इस कन्दकुन्द कृत मूलाचार का कई बार स्वाध्याय किया था। अपनी शिष्या आयिका जिनमती को वटकेर कृत मलाचार की मूल गाथाएँ पढ़ाई भी थीं। पुनः सन् १९७७ में जब हस्तिनापुर में प्रातः इसका सामूहिक स्वाध्याय चलाया था, तब श्री वसुनन्दि आचार्य की टीका का वाचन होता था। यह ग्रन्थ और उसकी यह टीका मुझे अत्यधिक प्रिय थी। पण्डित जिनदास द्वारा अनूदित मूलाचार में बहुत कुछ महत्त्वपूर्ण अंश नहीं आ पाये हैं यह बात मुझे ध्यान में आ जाती थी। अतः शब्दशः टीका का अनुवाद पुनरपि हो इस भावना से तथा अपने चरणा के ज्ञान को परिपुष्ट करने की भावना से मैंने उन्हीं स्वाध्यायकाल के दिनों में इस महाग्रन्थ का अनुवाद करना शुरू कर दिया । वैशाख वदी २, वीर संवत् २५०३ में मैंने अनुवाद प्रारम्भ किया था। जिनेन्द्रदेव के कृपाप्रसाद से, बिना किसी विघ्न बाधा के, अगले वैशाख सुदी ३ अक्षय तृतीया वीर संवत् २५०४ दिनांक १०-५-१९७८ दिन बुधवार को हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर ही इस अनुवाद को पूर्ण किया है।
- इसके अनुवाद के समय भी तथा पहले भी 'मूलाचार दो हैं, एक श्री कुन्दकुन्दविरचित, दूसरा श्री बट्टकेर विरचित' यह बात बहुचर्चित रही है । किन्तु मैंने अध्ययन-मनन १. मूलाचार श्रीकुन्दकुन्दकृत की प्रस्तावना, पृ. १४ २. वही, पृ. १६
पानयोग
२६ / मूलाचार
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