SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथा श्री वसुनन्दि आचार्य ने अपनी १२३वीं गाथा की टीका में सबका अर्थ ले लिया है । "एवं यत्नेन तिष्ठता यत्नेनासीनेन शयनेन यत्नेन भुंजानेन यत्नेन भाषमाणेन नवं कर्म न बध्यते चिरंतनं च क्षीयते ततः सर्वथा यत्नाचारेण भवितव्यमिति । " यही कारण है कि वसुनन्दि आचार्य ने उन गाथाओं का भाव टीका में लेकर सरलता दृष्टि से गाथाएँ छोड़ दी हैं, किन्तु कर्णाटक टीकाकार ने सारी गाथाएँ रक्खी हैं । आवश्यक अधिकार में नौ गाथाएँ ऐसी हैं जिनकी द्वितीय पंक्ति सदृश है, वही वही पुनरपि आती है । वसुनन्दि आचार्य ने दो गाथाओं को पूरी लेकर आगे सात गाथाओं में द्वितीय पंक्ति छोड़ दी है जस्स सणिहिदो अप्पा संजमे पियमे तवे । तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ॥२४॥ जो समोसव्वभूदेसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ||२५|| जस्स रागो य दोसो य विर्याड ण जर्णेति दु ॥ २६ ॥ जेण कोधो य माणो य माया लोभो य णिज्जिदो ॥ २७ ॥ ॥ जस्स सण्णा य लेस्सा य विर्याड ण जणंति दु ॥ २८ ॥ जो दुरसेय फासे य कामे बज्जदि णिच्चसा ॥२६ ।। जो रूवगंधसद्दे य भोगे वज्जदि णिच्चसा ॥ ३० ॥ जो दु अठ्ठे च रूच्छं च झालं झायदि णिच्चसा ॥ ३१ ॥ जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणे झायदि णिच्चसा ॥ ३२ ॥ अन्तिम नवमी गाथा की टीका में कहा है “..................यस्तु धर्मं चतुष्प्रकारं शुक्लं च चतुष्प्रकारं ध्यानं ध्यायति युनक्ति तस्य सर्वकालं सामायिकं तिष्ठतीति, केवलिशासनमिति सर्वत्र सम्बन्धो द्रष्टव्य इति ।" इस प्रकरण में टीकाकार ने स्वयं स्पष्ट कर दिया है कि "तस्स सामायियं ठादि इदि केवल सासणे ।" यह अर्थ सर्वत्र लगा लेना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ-जहाँ गाथाएँ वैसी-वैसी ही आती थीं, टीकाकार उन्हें छोड़ देते थे, और टीका में ही उनका अर्थ खोल देते थे । इसलिए कर्णाटक टीका में प्राप्त अधिक गाथाएँ मूल ग्रन्थकार की ही हैं, इस विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता है । जितने भी ये उद्धरण दिए गये हैं, इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 'मूलाचार' ग्रन्थ एक है, उसके टीकाकार दो हैं । Jain Education International १. मूलाचार बट्टकेरकृत, द्वि. भाग, पृ. १५० । २. मूलाचार बट्टकेर कृत, पृ. ४११ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy