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________________ १९४] [मलाचारे अज्जीवा विय-अजीवाश्चाजीवपदार्थाश्च । दुविहा-द्विप्रकाराः। रूवा-रूपिणो रूपरसगन्धस्पर्शवन्तो यतो रूपाविनाभाविनो रसादयस्ततो रूपग्रहणेन रसादीनामपि ग्रहणं । अरूवा य–अरूपिणश्च रूपादिवर्जिताः । रूविणो–रूपिणः पुद्गलाः । चदुधा-चतुःप्रकाराः । के ते चत्वारः प्रकारा इत्यत आहखंधा य–स्कन्धः । खंधदेसो-स्कन्धदेशः । खंधपदेसो-स्कन्धप्रदेशः ।अणू य तहा-अणुरपि तथा परमाणुः । रूप्यरूपिभेदेनाजीवपदार्था द्विप्रकाराः, रूपिणः पुनः स्कन्धादिभेदेन चतुःप्रकारा इति ॥२३०॥ स्कन्धादिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धभणंति देसोत्ति । अद्धद्धच पदेसो परमाणू चेय अविभागी॥२३॥ खंघ-स्कन्धः । सयल-सह कलाभिर्वर्तते इति सकलं सभेदं परमाण्वन्तं । समत्थं समस्तं सर्व पुद्गलद्रव्यं । सभेदं स्कन्धः सामान्यविशेषात्मकं पुद्गलद्रव्यमित्यर्थः । अतो न सकलसमस्तयोः पौनरुत्क्त्यं । तस्स दु-तस्य तु स्कन्धस्य। अद्ध-अधैं सकलं। भणंति-वदन्ति । देसोत्ति-देश इति तस्य समस्तस्य प्राचारवत्ति-अजीव पदार्थ रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार का है। रूपी शब्द से रूप, रस, गंध और स्पर्श इन चारों गुणवाले को लिया जाता है क्योंकि रस, गंध और स्पर्श ये रूप के साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाले हैं। इसलिए रूप के ग्रहण करने से रस आदि का भी ग्रहण हो जाता है । जो रूपादि से वर्जित हैं वे अरूपी कहलाते हैं । पुद्गल द्रव्य रूपी है । उसके चार भेद हैं-स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणु । ___ तात्पर्य यह हुआ कि रूपी और अरूपी के भेद से अजीव पदार्थ दो प्रकार का है। पुनः रूपी पुद्गल के स्कंध आदि के भेद से चार प्रकार होते हैं। अब स्कंध आदि का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं गाथार्थ-भेद सहित सम्पूर्ण पुद्गल स्कंध है, उसके आधे को देश कहते हैं। उस आधे के आधे को प्रदेश और अविभागी हिस्से को परमाणु कहते हैं ।।२३१॥ प्राचारवृत्ति—जो कलाओं के साथ अपने अवयवों के साथ रहता है वह सकल है अर्थात् परमाणु पर्यंत भेदों से रहित सभी पुद्गल सकल है। 'समत्थ' पद का अर्थ समस्त है अर्थात् सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य समस्त है । भेद सहित स्कंधरूप, सामान्य विशेषात्मक पुद्गल द्रव्य को यहाँ 'सकलसमस्त' पद से कहा गया है। इसलिए सकल और समस्त इन दोनों में पुनरुक्ति दोष नहीं है अर्थात् सकल और समस्त का अर्थ यदि एक ही सम्पूर्णतावाचक लिया जाय तो पुनरुक्ति दोष आ सकता है किन्तु यहाँ पर तो सकल का अर्थ कलाओं से रहित-परमाणु से लेकर महास्कंध पर्यंत ग्रहण किया गया है और समस्त का अर्थ सामान्य विशेष धर्म सहित सर्वपुद्गल द्रव्य विवक्षित किया गया है । इस स्कंध के आधे को स्कंधदेश कहते हैं । अर्थात् उस समस्त पुद्गल द्रव्य के आधे को जिनेंद्र देव ने 'देश' शब्द से कहा है। उस आधे के आधे को अर्थात् समस्त पुद्गल द्रव्य के आधे को आधा करना, पुनः उस आधे का आधा करना, इसप्रकार जब तक द्वषणुक स्कंध न हो जावे तब तक आधा आधा करते जाना, ये सभी भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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