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________________ पंचाचाराधिकारः ] [ १९५ पुद्गलद्रव्यस्याधी देश इति वदन्ति जिनाः । अद्धद्धं च - अर्धस्यार्धस्यार्धमर्धार्धं तत्समस्तपुद्गलद्रव्यार्धं तावदधेंनार्धेन कर्तव्यं यावद् द्वद्यणुकस्कन्धः ते सर्वे भेदाः प्रदेशवाच्या भवन्ति । परमाणूचेव - परमाणुश्च । अविभागी - निरंशो यस्य विभागो नास्ति तत्परमाणु द्रव्यम् ॥२३१॥ अरूपिद्रव्यभेदनिरूपणार्थमाह- ते पुणु धमाधम्मागासा य श्ररूविणो य तह कालो । धा देस पसा अणुति विय पोग्गला रूवी ॥२३२॥* प्रदेश शब्द से कहे जाते हैं । और निरंश भाग - जिसका दूसरा विभाग अब नहीं हो सकता है उस अविभागी पुद्गल को परमाणु कहते हैं । अरूपी द्रव्य के भेदों का निरूपण करते हैं गाथार्थ - पुनः वे धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल अरूपी हैं तथा स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और अणु इन भेद सहित पुद्गल द्रव्य रूपी हैं ॥२३२॥ * फलटन से प्रकाशित मूलाचार में दो गाथाएँ किंचित् बदली हुई हैं और एक अधिक है । खंधा देसपदेस जाव अणुत्तीवि पोग्गलारूखी । यष्णाविमंत जीवेण होंति बंधा जहाजोगं ॥ ४१ ॥ अर्थ-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश आदि अणु तक होनेवाले जो जो विभाग हैं वे सब पुद्गल हैं । वे सब रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणों से युक्त होने से रूपी हैं। और जीव के साथ यथायोग्य कर्म - नोकर्म रूप होकर बद्ध होते हैं । Jain Education International पुढवी जलं च छाया चरविय विसय कम्मपरमाणू । छविहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणवरेह ॥४२॥ अर्थ - पुद्गल द्रव्य को जिनेन्द्र देव ने छह प्रकार का बतलाया है। जैसे पृथिवी, जल, छाया, नेत्रेंद्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों का विषय, कर्म और परमाणु । वादरवादर वादर बादरसुमं च सुहुमथूलं च । सुमं सुमसुमं धरादियं होदि छन्भेयं ॥ ४३ ॥ अर्थ - जिसका छेदन-भेदन और अन्यत्र प्रापण हो सके उस स्कन्ध को वादरवादर कहते हैं । जैसे पृथिवी, काष्ठ, पाषाणादि । जिसका छेदन भेदन न हो सके किन्तु अन्यत्र ले जाया जा सके वह स्कन्धवादर है जैसे जल, तेल आदि । जिसका छेदन भेदन और अन्यत्र प्रापण भी न हो सके ऐसे नेत्र से दिखने योग्य स्कन्ध को बादरसूक्ष्म कहते हैं जैसे छाया, आतप, चांदनी आदि । नेत्र को छोड़कर शेषचार इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गल स्कन्ध को सूक्ष्मस्थूल कहते हैं जैसे शब्द, रस, गंध आदि । जिसका किसी इन्द्रिय से ग्रहण न हो सके उस पुद्गलस्कन्ध को सूक्ष्म कहते हैं जैसे कर्म वर्गणाएँ । जो स्कन्धरूप नहीं हैं ऐसे अविभागी परमाणु को सूक्ष्मसूक्ष्म कहते हैं । विशेषार्थ - अन्त की ये दो गाथायें गोम्मटसार जीवकांड में भी हैं जोकि पुद्गलद्रव्य के छह भेद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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