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________________ leve माचाराधिकारः] सरबतरन्ति सम्यक्पर्यटन्ति । सदा-सर्वकालं । यत्र तासां गमनं भवति तत्रानेन विधानेन नान्येनेति । तिस्रः पंच सप्त वा अन्योन्यरक्षाः स्थविराभिः सहान्तरिताश्च भिक्षार्थ समवतरन्ति सदेति ॥१६४॥ आचार्यादीनां च वन्दनां कुर्वन्ति ताः किं यथा मुनयो नेत्याह-- पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरिऊणज्जाम्रो गवासणेणेव वंदति ॥१६॥ .. पंचछसत्तहत्थे—पंचषट्सप्तहस्तान्। सूरीअसावगोय-सूर्यध्यापको चाचार्योपाध्यायो च। साघुय-साधूश्च । परिहरिऊण-परिहत्य एतावदन्तरे स्थित्वा । अज्जाओ-आर्याः। गवासणेण-गवासनेन यथा गोरुपविशति तथोपविश्य एवकारोऽवधारणार्थः । वंदंति-वन्दन्ते प्रणमन्ति। पचषट्सप्तहस्तर्व्यवधानं कत्वा आचार्योपाध्यायौ च साधुश्च गवासनेनैव वन्दन्ते आर्या नान्येन प्रकारेणेत्यर्थः । आलाचनाध्ययनस्तुतिभेदात् क्रमभेद इति ॥१६॥ उपसंहारार्थमाह एवंविधाणचरियं चरितं जे सोघवो य प्रज्जाओ। ते जगपुज्जं कित्ति सुहं च लभ्रूण सिझंति ॥१६६॥ उसी प्रकार से यहाँ ऐसा अर्थ लेना कि आर्यिकाओं का जब भी वसतिका से बाहर गमन होता है तब इसी विधान से होता है अन्य प्रकार से नहीं। तात्पर्य यह है कि आर्यिकाएं देववंदना, गुरुवंदना, आहार, विहार, नीहार आदि किसी भी प्रयोजन के लिए बाहर जावें तो दो-चार आदि मिलकर तथा वृद्धा आर्यिकाओं के साथ होकर ही जावें। __ जैसे मुनि आचार्य आदि की वंदना करते हैं, क्या आर्यिकाएँ भी वैसे ही करती हैं ? नहीं, सो बताते हैं ___ गाथार्थ-आर्यिकाएं आचार्य को पाँच हाथ से, उपाध्याय को छह हाथ से और साधु को सात हाथ से दूर रहकर गवासन से ही वंदना करती हैं ॥१६॥ प्राचारवृत्ति-आर्यिकाएं आचार्य के पास आलोचना करती हैं अतः उनकी वंदना के लिए पाँच हाथ के अंतराल से गवासन से बैठकर नमस्कार करती हैं। ऐसे ही उपाध्याय के पास अध्ययन करना है अतः उन्हें छह हाथ के अंतराल से नमस्कार करती हैं तथा साधु की स्तुति करनी होती है अतः वे सात हाथ के अंतराल से उन्हें नमस्कार करती हैं, अन्य प्रकार से नहीं। यह क्रमभेद आलोचना, अध्ययन और स्तुति करने की अपेक्षा से हो जाता है। अब उपसंहार करते हुए कहते हैं गाथार्थ-उपर्युक्त विधानरूप चर्या का जो साधु और आर्यिकाएँ शाचरण करते हैं वे जगत् से पूजा को, यश को और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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