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________________ *x=] रोदणण्हावणभोयणपणं सुत्तं च छविहारं मे । विरदाण पादमक्खणधोवणगेयं च ण य कुज्जा ॥ १६३ ॥ रोदण - रोदनमश्रुविमोचनं दुःखार्तस्य । व्हावण - स्नपनं बालादीनां मार्जनं । भोयण - भोजनं तेषामेव बल्भनपानादिक्रियाः । पयणं - पचनं ओदनादीनां पाकनिर्वर्तनं । सुत्तं च -सूत्र सूत्रकरणं च । छब्बि हारम्भे-षट् प्रकारा येषां ते षड्विधास्ते च ते आरम्भाश्चेति पड्विधारम्भाः । असिमषिकृषिवाणिज्यशिल्पलेखक्रिया प्रारम्भास्तान् जीवघातहेतून् । विरदाण-विरतानां संयतानां । पादमक्खणधोवण --- म्रक्षणं अभ्यङ्गनं धावनं प्रक्षालनं पादयोश्चरणयोव्रं क्षणधावनं पादम्रक्षणधावनं । गेयं-गीतं च रागपूर्वकं गन्धर्वं । णय-न च । कुब्जा कुर्युः न कुर्वन्ति । परगृहं गता आर्यिका रोदनस्नपन भोजनपचनसूत्राणि षड्विधा रम्भाश्च न कुर्वन्ति, विरतानां पादम्रक्षणधावनं वा न कुर्युः स्वावासे परवासे वान्याश्च या अयोग्य क्रियास्ता न कुर्वन्त्यपवादहेतुत्वादिति ॥ १६३॥ अथ भिक्षाचर्यायां कथमवतरन्ति ता इत्यत आह [मूलाचारे तिष्णि व पंच व सत्त व प्रज्जाओ अण्णमण्ण रक्खाश्रो । थेरीहि सतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा ॥ १६४॥ तिष्णिव- तिस्रो वा । पंच व पंच वा । सत्त व-सप्त वा । अज्जाओ–आर्थिकाः । अण्णमण्णरक्खाओ —अन्योन्यरक्षायासां ता अन्योन्यरक्षाः परस्परकृतयत्नाः । थेरीहि - स्थविराभिः वृद्धाभिः । सह- सार्धं । अंतरिदा - अन्तरिता व्यवहिताः काभिवृद्धाभिरेवान्यासामश्रुतत्वात् । भिक्खाय — भिक्षायं भिक्षार्थं भिक्षाभ्रमणकाले वोपलक्षणमात्रमेतद् भिक्षाग्रहणं यथा काकेभ्यो दधि रक्षतामिति । समोदरंति गाथार्थ - रोना, नहलाना, खिलाना, भोजन पकाना, सूत कातना, छह प्रकार का आरम्भ करना, यतियों के पैर में मालिश करना, धोना और गीत गाना, आर्यिकाएँ इन कार्यों को नहीं करें ॥ १६३॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति - दुःख से पीडित को देखकर अश्रु गिराना, बच्चों को नहलाना धुलाना, उन्हें भोजन - पान आदि कराना, भात आदि पकाना, सूत कातना; असि, मंषि, कृषि, व्यापार, शिल्पकला और लेखन क्रिया जीवघात के कारणभूत इन छह प्रकार के आरम्भों का करना, संयतों के पैर में तैल वगैरह का मालिश करना, उनके चरणों का प्रक्षालन' करना तथा रागपूर्वक गंधर्व गीत गाना इन क्रियाओं को आर्यिकाएँ अपनी वसतिका में या अन्य के गृह में नहीं करें क्योंकि इससे ये क्रियाएँ उनके अपवाद के लिए कारण हैं । आहार के लिए वे कैसे निकलती हैं ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-तीन या पाँच या सात आर्यिकाएँ आपस में रक्षा में तत्पर होती हुईं, वृद्ध आर्यिकाओं के साथ मिलकर हमेशा आहार के लिए निकलती हैं ॥१६४॥ आचारवृत्ति - तीन, पाँच अथवा सात आर्यिकाएँ परस्पर में एक दूसरे की सँभाल रखती हुईं और वृद्धा आर्यिकाओं से अंतरित होती हुई आहार के लिए सम्यक् प्रकार से सर्व काल पर्यटन करती हैं । यहाँ भिक्षा शब्द उपलक्षण मात्र है । जैसे किसी ने कहा- 'कौवे से दही की रक्षा करना' तो उसका अभिप्राय यह हुआ कि बिल्ली आदि सभी से उसकी रक्षा करना है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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