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________________ समाचाराधिकारः ] [ १४e थेरं - स्थविरं आत्मानं सर्वत्र सम्बंधनीयं सामर्थ्यात् सोपस्कारत्वात् सूत्राणां । चिरपव्वइयंचिरप्रव्रजितं प्ररूढव्रतं । आयरियं - आचार्यं । बहुसुदं - बहुश्रुतं सर्वशास्त्रपारगं । तवस वा -- तपस्विनं वा षष्ठाष्टमादिकयुक्तं चकाराद्वात्मनः समुच्चयः, अथवा स्थविरत्वादयो गुणा गृह्यते, अथवात्मनोऽन्ये स्थविर - 1 त्वादयस्तान् । ण गणेदि-न गणयति नोऽपेक्षते' नो पश्यति न गणयेद्वा । काममलिणो-कामेन मलिनः कश्मलः काममलिनो मैथुनेच्छोपद्रतः । कुलमवि - कुलमपि कुलं मातृपितृकुलं सम्यक्त्वादिकं वा । समणोश्रमणः । विणासेदि - विनाशयति विराधयति । स्थविरं चिरप्रब्रजिताचार्यं बहुश्रुतं तपस्विनमात्मानं केवलं न गणयति काममलिनः सन् श्रमणः कुलमपि विनाशयति । अथवा न केवलमात्मनः स्थविरत्वादीन् गुणान् न गणयति सम्यक्त्वादिगुणानपि विनाशयति । अथवा न केवलं कुलं विनाशयति किंतु स्थविरत्वादीनपि' न गणयति परिभवतीत्यर्थः ॥ १५१ ॥ एताः पुनराश्रयन् यद्यपि कुलं न विनाशयत्यात्मानं वा तथाप्यपवादं प्राप्नोतीत्याह कण्णं विधवं अंतेरिथं तह सइरिणी सलिंगं वा । श्रचिरेणल्लियमाणो अदवादं तत्थ पप्पोदि ॥ १८२॥ आचारवृत्ति - स्थविर, चिरप्रत्रजित आदि सभी के साथ 'आत्मा' शब्द का सम्बन्ध कर लेना चाहिए क्योंकि सूत्र उपस्कार -- अध्याहार सहित होते हैं । जो स्थविर है, चिरकाल से दीक्षा लेने से व्रतों में दृढ़ है, आचार्य है, सर्व शास्त्र का पारंगत है अथवा वेला तेला आदि उपवासों का करनेवाला होने से तपस्वी है ऐसी योग्यता विशिष्ट होने पर भी काम से मलिन हुआ मुनि इन सब को कुछ नहीं गिनता है । अथवा स्थविर आदि शब्दों से यहाँ स्थविरत्व आदि ग्रहण किया गया समझना चाहिए अर्थात् काम से पीडित हुआ मुनि अपने इन गुणों को कुछ नहीं समझता है-तिरस्कृत कर देता है । अथवा अपने से अन्य जो स्थविरत्व आदि हैं उनको लेना चाहिए अर्थात् यह कामेच्छा से पीडित हुआ मुनि उस संघ में रहनेवाले स्थविर— मुनि, चिरदीक्षित, या आचार्य, उपाध्याय अथवा तपस्विओं को भी कुछ नहीं समझता है उनको नहीं देखता है, उनकी उपेक्षा कर देता है । और तो और, अपने माता-पिता के कुल को अथवा अपने सम्यक्त्व आदि को भी नष्ट कर देता है, इन गुणों की विराधना कर देता है । तात्पर्य यह है कि काम से पीडित हुआ मुनि स्थविर आदि रूप अपने को ही केवल नहीं गिनता है ऐसी बात नहीं, वह कुल को भी नष्ट कर देता है । अथवा वह केवल अपने स्थविरत्व आदि गुणों को ही नहीं गिनता है ऐसी बात नहीं, वह सम्यक्त्व आदि गुणों को भी नष्ट कर देता है । अथवा केवल वह कुल का ही नाश करता है ऐसा नहीं, वह तो स्थविरत्व आदि को भो कुछ नहीं गिनता है, उनका तिरस्कार कर देता है । पुनः कोई आर्यिकाओं का आश्रय करता हुआ भले ही अपने कुल का अथवा अपना विनाश नहीं करता हो, लेकिन अपवाद को तो प्राप्त हो ही जाता है, सो ही बताते हैंगाथार्थ - वह मुनि कन्या, विधवा, रानी, स्वेच्छाचारिणी तथा तपस्विनी महिला का आश्रय लेता हुआ तत्काल ही उसमें अपवाद को प्राप्त हो जाता है ॥ १८२॥ १ क 'विराद' । २ क नापेक्षते । ३ क रादी' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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