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________________ १५०] [मूलाचारे कण्णं-कन्यां विवाहयोग्यां। विहवं-विगतो मतो गतो धवो भर्ता यस्याः सा विधवा तां। अंतेउरियं-अन्तःपुरे भवा आन्तःपुरिका तामान्तःपुरिकां स्वार्थे क:-राज्ञी राज्ञीसमानां विलासिनी वा। . तह-तथा । सइरिणी-स्वेच्छया परकुलानीयर्तीति स्वैरिणी तां स्वेच्छाचारिणीं। सलिगं वा-समानं लिंग सलिंगं व्रतादिकं कुलं वा तद्विद्यते यस्याः सा सलिगिनी तां। अथवा सह लिंगेन वर्तते इति सलिंगा तां स्वदर्शनेऽन्यदर्शने वा प्रव्रजितां । अचिरेण-क्षणमात्रेण मनागपि । अल्लियमाणो-आलीयमानः आश्रयमाण: सहवासालापादिक्रियां कुर्वाणः । अववादं-अपवादं अकीति। तत्थ-तत्राश्रयणे । पप्पोदि-प्राप्नोति अर्जयतीति । कन्यां विधवां आन्तःपरिकां स्वैरिणी सलिगिनी वालीयमानोऽचिरेण तत्र अपवादं प्राप्नोतीति ॥१८२॥ नन्वार्यादिभिः सह संसर्गः सर्वथा यदि परित्यजनीयः कथं तासां प्रतिक्रमणादिकं क एवमाह सर्वथा त्यागो यावतवं विशिष्टेन कर्तव्य इत्याह पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीर परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुतो॥१८३॥ गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य। चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि ॥१८४॥ पियधम्मो-प्रिय इष्टो धर्मः क्षमादिकश्चारित्रं वा यस्यासौ प्रियधर्मा उपशमादिसमन्वितः । वढधम्मो-दढः स्थिरो धर्मो धर्माभिप्रायो यस्यासो दढधर्मा । संविग्गो संविग्नो धर्मतत्फलविषये हर्ष प्राचारवृत्ति-विवाह के योग्य लड़की अर्थात् जिसका अब तक विवाह नहीं हुआ है कन्या है । वि-विगत-मर गया है धव-पति जिसका वह विधवा है। अन्तःपुर-रणवास में रहनेवाली आन्तःपुरिका है, अर्थात् रानी अथवा रानी के समान विलासिनी स्त्रियों को अन्तःपुर में रहनेवाली शब्द से ग्रहण किया है। जो स्वेच्छा से पर-गृहों में जाती है वह स्वेच्छाचारिणी अर्थात व्यभिचारिणी है। समान लिंग व्रतादि अथवा कूल जिसके है वह सलिंगिनी है। अथवा लिंग-वेषसहित स्त्री सलिंगिनी है वे चाहे अपने सम्प्रदाय की आर्यिका आदि हों या अन्य सम्प्रदाय की साध्वियाँ हों। इन उपर्युक्त प्रकार की महिलाओं का क्षणमात्र भी आश्रय लेता हुआ, उनके साथ सहवास वार्तालाप आदि क्रियाओं को करता हुआ मुनि उनके आश्रय से अपवाद को-अकीर्ति को प्राप्त कर लेता है ऐसा समझना। यदि आयिकाओं के साथ संसर्ग करना सर्वथा छोड़ने योग्य है तो उनके प्रतिक्रमण आदि कैसे होंगे? कौन ऐसा कहता है कि सर्वथा उनका संसर्ग त्याग करना, किन्तु जो आगे कहे गये गुणों से विशिष्ट हैं उन्हें उनका प्रतिक्रमण आदि कराना होता है, सो ही बताते हैं गाथार्थ जो धर्म के प्रेमी हैं, धर्म में दृढ़ हैं, संवेग भाव सहित हैं, पाप से भीरू हैं, शुद्ध आचरण वाले हैं, शिष्यों के संग्रह और अनुग्रह में कुशल हैं और हमेशा ही पापक्रिया की निवृत्ति से युक्त हैं ॥१८३॥ गम्भीर हैं, स्थिरचित्त हैं, मित बोलनेवाले हैं, किंचित् कुतूहल करते हैं, चिरदीक्षित हैं, तत्त्वों के ज्ञाता हैं-ऐसे मुनि आर्यिकाओं के आचार्य होते हैं ॥१८४॥ प्राचारवृत्ति-प्रिय-इष्ट है उत्तमक्षमादि धर्म अथवा चारित्र जिनको वे प्रियधर्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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