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________________ १४८] [मूलाचारे वेशनं । उवटणं-उद्वर्तनं शयनं लोटनं । सज्झाय-स्वाध्याय: शास्त्रव्याख्यानं परिवर्तनादयो वा। आहारभिक्खा-आहारभिक्षाग्रहणं । वोसरणं---प्रतिक्रमणादिकं अथवा व्युत्सर्जनं मूत्रपुरीषाद्य त्सर्गः 'प्रदेशसाहचर्यात् एतेषां द्वन्द्वः सः। अन्याश्चैवमादयश्च क्रिया न युक्ताः। विरतानां चेष्टितुं आर्थिकाणामावासे न कल्पते, निषद्योद्वर्तनस्वाध्यायाहारभिक्षाव्युत्सर्जनानि च तत्र न कल्पते । आहारभिक्षयोः को विशेष इति चेत् तत्कृतान्यकृतभेदात् ताभिनिष्पादितं भोजनं आहारः, श्रावकादिभिः कृतं यत्तत्र दीयते सा भिक्षा । अथवा मध्यान्हकाले भिक्षार्थं पर्यटनं भिक्षा ओदनादिग्रहणमाहारः इति ॥१८॥ किमर्थमेताभिः सह स्थविरत्वादिगुणसमन्वितस्यापि संसर्गो वार्यते यतः थेरं चिरपव्वइयं आयरियं बहसुदं च तसिं वा। ण गणेदि काममलिणो कुलमवि समणो विणासेइ ॥१८१॥ जैसे कि वहाँ पर बैठना, सोना या लेटना, शास्त्र का व्याख्यान या परिवर्तन-पुनः पुनः पढ़नारटना आदि करना, आहार और भिक्षा का ग्रहण करना, वहाँ पर प्रतिक्रमण आदि करना या मलमत्र विसर्जन आदि करना, और भी इसो प्रकार की अन्य क्रियाएँ करना युक्त नहीं है। आहार और भिक्षा में क्या अंतर है ? उन आर्यिकाओं के द्वारा निष्पादित भोजन आहार कहा गया है और श्रावक आदिकों द्वारा बनाया गया भोजन जो वहाँ पर दिया जाता है सो भिक्षा कहलाती है । (अथवा 'ताभि' का अर्थ 'आर्यिकाओं द्वारा' ऐसा न लेकर पूरे वाक्यार्थ को इस प्रकार लिया जाना उपयुक्त होगा -वह भोजन, जो उन्हीं श्राविकाओं द्वारा निष्पादित अर्थात् तैयार किया गया है जो दे भी रही होती हैं, आहार है । तथा वह भोजन, जिसे पड़ोसी आदि अन्य श्रावकजन तैयार किया हुआ लाकर देते हैं, वह भिक्षा है।) अथवा मध्यान्हकाल में चर्या के लिए पर्यटन करना सो भिक्षा और भात आदि भोजन ग्रहण करना आहार है ऐसा समझना। विशेषार्थ—यहाँ पर जो अयिकाओं द्वारा निष्पादित भोजन को आहार संज्ञा दी है सो समझ में नहीं आया है। क्योंकि आर्यिकायें भी आरम्भ परिग्रह का त्याग कर चुकी हैं। मूलाचार प्रदीप अ० ७ श्लोक १६० में कहा है कि- "आर्यिकाएँ स्नान, रोदन, अन्नादि पकाना, सीवना, सूत कातना, गीत गाना, बाजे बजाना आदि क्रियाएँ न करें। इससे आर्यिकाओं द्वारा भोजन बनाना सम्भव नहीं है । अतः टीका में अथवा कहकर जो दूसरा अर्थ किया गया है उसे ही यहाँ संगत समझना चाहिए। इन आयिकाओं के साथ स्थविरत्व आदि गुणों से समन्वित का भी संसर्ग किसलिए मना किया गया है ? सो ही कहते हैं गाथार्थ-काम से मलिनचित्त श्रमण स्थविर, चिरदीक्षित, आचार्य, बहुश्रुत तथा तपस्वी को भी नहीं गिनता है, कुल का भी विनाश कर देता है ।।१८१॥ १ क प्रदेशः सा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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