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________________ सामाचाराधिकारः ] व्यतिरेकद्वारेण प्रतिपाद्यात्वयद्वारेण प्रतिपादयन्नाह तरुण तरुणीए सह कहा व सल्लावणं च जदि कुज्जा । श्राणाकोवादीया पंचवि दोसा कदा तेण ॥ १७६ ॥ यदि कथितन्यायेन न प्रवर्तते चेत् । तरुणो-यौवनपिशाचगृहीतः । तरुणीए - तरुण्या उन्मत्तयोवनया । सह— सार्धं । कहाव - कथां वा प्राक्प्रबन्धचरितं । सल्लावणं च - सल्लापं च अथवा ( असम्भावणं' च) प्रहासप्रवचनं च । जदि कुज्जा-यदि कुर्यात् विधेयाच्चेत् । आणाकोधा (वा) दीया - आज्ञाकोपादयः आज्ञाकोपानवस्थामिथ्यात्वाराधनात्मनाशसंयमविराधनानि । पंचवि पंचापि । दोसा- दोषाः पापहेतवः । कवा — कृता अनुष्ठिताः । तेण तेनैवकुर्वता । यदि तरुणस्तरुण्या राह कयामत्रसल्लापं च कुर्यात्ततः कि स्यात् ? आज्ञाकोपादिका: पंचापि दोषाः कृतास्तेन स्युरिति ॥ १७६॥ यत्र वह्वयस्तिष्ठन्ति तत्र किमावासादिक्रिया युक्ताः ? नेत्याह जो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयह्मि चिट्ठेदुं । तत्थ णिसेज्जउवट्टणसज्झायाहार भिक्खवो सरणं ॥ १८० ॥ [ १४७ णो कप्पदिन कल्पते न युज्यते । विरदाणं-विरतानां संयतानां पापक्रियाक्षयकरणोद्यतान।। विरवीणं – विरतीनां आर्यिकाणां । उवासयम्हि आवासे वसतिकादी | चिट्ठ े दुं— चेष्टियितुं स्थातुं वसितुं न केवलं । तत्थ तत्र दीर्घकालाः क्रिया न युक्ताः किन्तु क्षणमात्रायाः क्रियास्ता अपि । णिसेज्ज निषद्योप व्यतिरेक के द्वारा प्रतिपादन करके अब अन्वय के द्वारा प्रतिपादन करते हैं-तरुण मुनि तरुणी के साथ यदि कथा या वचनालाप करे तो उस मुनि ने आज्ञाकोप आदि पाँचों ही दोष किये ऐसा समझना चाहिए ।। १७६ ॥ गाथार्थ श्राचारवृत्ति - यदि कथित न्याय से मुनि प्रवृत्ति नहीं करे अर्थात् यौवनपिशाच से गृहीत हुआ तरुण मुनि यौवन से उन्मत्त हुई तरुणी के साथ पहले से सम्बन्धित चरित्र रूप कथा को अथवा संलाप या हँसो वंचना आदि वातों को करता है तो पूर्व में कथित आज्ञाकोप, अनवस्था, मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयमविराधना इन पाप के हेतुभूत पाँच दोषों को करता है ऐसा समझना चाहिए । जहाँ पर बहुत-सी आर्यिकाएँ रहती हैं वहाँ पर क्या आवास आदि क्रिया करना युक्त है ? नहीं, सो ही बताते हैं गाथार्थ – आयिकाओं की वसतिका में मुनियों का रहना और वहाँ पर बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा व कार्योत्सर्ग करना युक्त नहीं है ॥ १८०॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति -- पापक्रिया के क्षय करने में उद्यत हुए विरत मुनियों का आर्यिकाओं की वसतिका आदि में रहना उचित नहीं है । केवल ऐसी ही बात नहीं है कि वहाँ पर बहुत काल तक होनेवाली क्रियाएँ न करें, किन्तु वहाँ अल्पकालिक क्रियाएँ भी करना युक्त नहीं है । ५. क सल्लापनं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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