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________________ [मूलाचारे पुनरपि तस्यागतस्य किं क्रियत इत्याह पाएसस्स तिरत्तं णियमा संघाडओ दु दायव्वो। किरियासंथारादिसु सहवासपरिक्खणाहेऊं ॥१६२॥ आएसस्स-आगतस्य पादोष्णस्य । तिरत्तं-त्रिरात्रं त्रयो दिवसाः । णियमा–नियमान्निश्चयेन। संघाडओ-संघाटकः सहायः । त्वेवकारार्थे । वायम्बो-दातव्यः। केषु प्रदेशेष्वत आह-किरिया-क्रियाः स्वाध्यायवन्दनाप्रतिक्रमणादिकाः। संथार-संस्तारं शयनीयप्रदेशस्तावादिर्येषां ते क्रियासंस्तारादयस्तेष षडावश्यकक्रियास्वाध्यायसंस्तरभिक्षामूत्रपुरीषोत्सर्गादिषु' । किंनिमित्तमत आह–सहवास-सहवसनं सहवासस्तेन सार्द्धमेकस्मिन् स्थाने सम्यग्दर्शनादिषु सहाचरणं तस्य परिक्खणाहेऊ-परीक्षणं परीक्षा वा तदेव हेतुः कारणं सहवासपरीक्षणहेतुस्तस्मात्तेन सहाचरणं करिष्याम इति हेतोः। आगतस्य नियमात्त्रिरात्रं संघाटको दातव्यः क्रियासंस्तरादिषु सहवासपरीक्षणनिमित्तमिति ॥१६२॥ किं तैरेव परीक्षा कर्तव्या नेत्याह प्रागंतुयवत्थन्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णाहिं। अण्णोण्णकरणचरणं जाणणहे, परिक्खंति ॥१६३॥ आगंतुयवत्थव्वा-आगन्तुकाश्च वास्तव्याश्चागन्तुकवास्तव्याः। पडिलेहाहि-अन्याभिरन्याभिः क्रियाभिः प्रतिलेखनेन भोजनेन स्वाध्यायेन प्रतिक्रमणादिभिश्च । अण्णमण्णाहिं—परस्परं । अण्णोणं-' त्रयोदशक्रियाचारित्रं । अथवान्योन्यस्य करणचरणं-तयोनिं तदर्थ अन्योन्यकरणचरणज्ञानहेतोः। पुनरपि उन आगत मुनि के लिए क्या करते हैं ? सो बताते हैं गाथार्थ-क्रियाओं में और संस्तर आदि में सहवास तथा परीक्षा के लिए आगन्तुक को तीन रात्रि तक नियम से सहाय देना चाहिए ॥१६२॥ . प्राचारवृत्ति-स्वाध्याय, वन्दना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ हैं और शयनीय प्रदेश में भूमि, शिला, पाटें या तृण को विछाना सो संस्तर है तथा आदि शब्द से आहार ग्रहण, मल-मत्र विसर्जन आदि में, छह आवश्यक क्रियाओं में, स्वाध्याय करने के समय में उनके साथ एक स्थान में रहकर उन सभी में परीक्षा करने के लिए अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि की परीक्षा के लिए आगन्तुक मुनियों को नियम से तीन रात्रिपर्यन्त स्थान देना ही चाहिए। ऐसा क्यों करते हैं ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-आगन्तुक और वास्तव्य मुनि अन्य-अन्य क्रियाओं के द्वारा और प्रतिलेखन के द्वारा परस्पर में एक-दूसरे की क्रिया और चारित्र को जानने के लिए परीक्षा करते हैं ॥१६३॥ आचारवृत्ति-अतिथि मुनि और संघ में रहनेवाले मुनि आपस में एक-दूसरे की त्रयोदशविध क्रियाओं को और त्रयोदशविध चारित्र को जानने के लिए पिच्छिका से प्रतिलेखन क्रिया में, आहार में, स्वाध्याय और प्रतिक्रमण आदि में एक-दूसरे की परीक्षा करते हैं । अर्थात् १ क षु सहा । २ क “नेन स्वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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